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आगकी आँच पाकर पिघल जाता है, उसी प्रकार साधु
पुरुषोंका हृदय भी दूसरोंके संतापसे संतप्त होकर द्रधित
हो उठता है। उस समय राजाने दूतोंसे कहा ।
राजा बोले-- इन देखकर मुझे बड़ी व्यथा हो
रही है। मैं इन व्यथित प्राणिर्योको छोड़कर जाना नहीं
चाहता । मेरी समझमें सबसे बड़ा पापौ वही है, जो
समर्थ होते हुए भौ वेदनाग्रस्त जीका शोक दूर न कर
सके । यदि मेरे शरीरकों छूकर बहनेवाली वायुके स्पर्शसे
ये जीव सुखी हुए हैं तो आपलोग मुझे उसी स्थानपर
ले चलिये; क्योंकि जो चन्दनवृक्षकी भाँति दूसरोंके ताप
दूर् करके उन्हें आह्वादित करते हैं तथा जो पणोपकारके
लिये स्वयं कष्ट उठाते हैं, वे ही पुण्यात्मा हैं। संसारमें
वे ही संत हैं, जो दूसरोंके दुःखोंका नाझ करते हैं तथा
पीड़ित जीवॉकी पीड़ा दूर करनेके लिये जिन्होंने अपने
प्राणोको तिनकेके समान निछावर कर दिया है। जो
मनुष्य सदा दूसरोंकी भलाईके लिये उद्यत रहते हैं,
उन्होंने ही इस पृथ्वीकों धारण कर रखा है । जहाँ सदा
अपने मनको ही सुख मिलता है, वह स्वर्ग भी नरकके
ही समान है; अतः साधु पुरुष सदा दूसरोंके सुखसे हो
सुखी होते हैं। यहाँ नरकमें गिरना अच्छा, प्राणोंसे
वियोग हो जाना भी अच्छा; किन्तु पीड़ित जीवॉकी
पीड़ा दूर किये बिना एक क्षण भो सुख भोगना अच्छा
नहीं है।*
दूत खोले--राजन् ! पापी पुरुष अपने कर्मोंका ही
फर भोगते हुए भयंकर नरकमें पकाये जाते हैं। जिन्होंने
दान, होम अथवा पुण्यतीर्थे स्नान नहीं किया है;
मनुष्योंका उपकार तथा कोई उत्तम पुण्य नहीं किया है;
यज्ञ, तपस्या और प्रसन्नतापूर्वक भगवन्नामोंका जप नहीं
* अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि पां पदम +
[ संक्षिप्त पद्पुराण
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किया है, वे ही परल्त्रेकमें आनेपर घोर नरकॉमें पकाय
जाते हैं। जिनका शील-स्वभाव दूषित है, जो दुराचारौ,
व्यवहारमें निन्दित, दूसरोंकी बुराई करनेवाले एवं पापी
हैं, वे ही नरकॉमें पड़ते हैं। जो पापी अपने मर्मभेदी
वचनोंसे दूसरोंका हृदय विदीर्ण कर डालते हैं तथा जो
परायी खियेकि साथ विहार करते हैं, वे नस्कॉमें पकाये
जाते हैं। महाभाग भूपाल ! आओ, अब भगवानके
धामको चलें। तुम पुण्यवान् हो, अतः अब तुम्हारा यहाँ
ठहरना उचित नहीं है।
राजाने कहा--विष्णुदूतगण ! यदि मैं पुण्यात्मा
हूँ तो इस महाभयंकर यातनामार्ममें कैसे त्रया गया ?
मैंने कौन-सा पाप किया है तथा किस पुण्यके प्रभावसे
मैं विष्णुधापको जाऊँगा ? आपल्मेग मेरे इस संदायकरा
निवारण करें।
दूत बोले--राजन् ! तुम्हात मन कामके अधीन
हो रहा था; इसलिये तुमने कोई पुण्य, यज्ञानुष्ठान अथवा
यज्ञावशिष्ट अन्नका भोजन नहीं किया है। इसीलिये तुम्हें
इस मार्गसे त्रया गया है। किन्तु लगातार तीन वर्षौतक
तुमने अपने गुरुकी प्रेरणासे खैज्ञास्व मासमें विधिपूर्वक
प्रातःस्नान किया है तथा महापापों और अतिपापोंकी
राशिका बिनाश करनेवाले भक्तवत्सल, विश्वेश्वर भगवान्
मधुसूदनकी भक्तिपूर्वक पूजा की है। यह सब पुण्योंका
सार है। केवल इस एक ही पुण्यसे तुम देवताओंद्वारा
पूजित होकर श्रीविष्णुधामकों ले जाये जा रहे हो।
नरेश्वर ! जैसे एक ही चिनगारी पड़ जानेसे तिनकोंकी
राहि भस्म हो जाती है, उसी प्रकार बैशासमें प्रातःखान
करनेसे पापराशिका विनादा हो जाता है। जो जैज्ञाखमें
शाख्तोक्त नियमोंसे युक्त होकर खान करता है, वह
* परतापच्छिदों ये तु चन्दना इवं चन्दनाः । परोपकृतये ये तु पीछ्यन्ते कृतिनो हि ते॥
सन््रस्त एवं ये स्सेके परदुः विदारणाः । आर्ताआमार्तिजाझाथे प्राणा येषरा तृणोपमाः॥
लैरियं धार्यते भूमिनीः परहितोद्यतैः । मनसो यत्सुखं नित्य सर स्वर्गों नरकोपमः ॥
तस्पात्परसुखेनैव साथव: सुखिनः सदा । च॑ निरयपातोउज चरं प्राणकियोडनम् ॥।
ने पुनः
क्षणमार्तानामार्तिगाझघृते. सुखस् ॥
(१५७॥ ३३२-- ३५)