* अध्याय २९७ *
च
{ {2 337.
अनुष्टप् एवं क्रिषटुप् छन्द जानने चाहिये । ' अद्भ्यः | रुद्रगणकी तीन अशीतियाँ है । रुद्रानुवाकके
सम्भृतः० आदि सूक्तके उत्तरगामी नर ऋषि है । | ऋचाओंके रुद्र॒ देवता हैं। बीसवीं ऋचा भी
इनमें क्रमशः पहले तीन मन्त्रोंका त्रिष्टप् छन्द, | रुद्रदेवता-सम्बन्धिनी है। पहली ऋचाका छन्द
फिर दो मन्त्रौका अनुष्टप् छन्द और अन्तिम
मन्त्रका त्रिष्टुप् छन्द है तथा पुरुष इसके देवता है ।
"आशुः शिशानः०' (यजु १७।३३) आदि
बृहती, दूसरीका त्रिजगती, तीसरीका त्रिष्ट॒प्
और शेष तीनका अनुष्टप् छन्द है। श्रेष्ठ आचरणसे
युक्त पुरुष इसका ज्ञान पाकर उत्तम सिद्धिका
सूक्तमें बारह मन्त्रोंके इन्द्र देवता और त्रिष्टुप् | | लाभ करता है। “त्रैलोक्य-मोहन' मन्त्रसे भी
छन्द हैं। इन सत्रह ऋचाओंके सूक्तके ऋषि
"प्रतिरथ ' कहे गये हैं, किंतु देवता भिन-भिन
माने गये हैं। कुछ मन्त्रोंके पुरुवित् देवता हैं।
विष-व्याधि आदिका विनाश होता है। वह मन्त्र
इस प्रकार है--'डं श्रीं हीं हूं त्रैलोक्यमोहनाय
विष्णवे नमः।' (त्रैलोक्यमोहन विष्णुको नमस्कार
अवशिष्ट देवतासम्बन्धी मन्त्रोका छन्द अनुष्टुप् | है) निम्नाद्धित आनुष्टभ नृसिंह -मन्त्रसे भी विष-
कहा गया है । 'असौ यस्ताग्नो०' (यजु० १६।६)
मन्त्रके पुरुलिङ्गोक्त देवता और पंक्ति छन्द है ।
"मर्माणि ते०' (यजु० १७।४९) मन्त्रका क्रष्टप्
छन्द ओर लिङ्गोक्त देवता है । सम्पूर्ण रुद्राध्यायके
परमेष्ठी ऋषि, "देवानाम्" इत्यादि मन्त्रोकि
प्रजापति ऋषि और तीनों ऋचाओंकि कुत्स
ऋषि हैं। "मा नो महान्तमुत मा नो०' ( यजुर्वेद
१६; १५) और " मा नस्तोके०' (यजु० १६। १६)
आदि दो मन्त्रके एकमात्र उमा तथा अन्य
मन्त्रके रद्र ओर रुद्रगण देवता है। सोलह
ऋचाओंवाले आद्य अनुवाकके रुद्र॒ देवता हैं।
प्रथम मन्त्रका छन्द गायत्री, तीन ऋचाओंका
अनुष्टुप्, तीन ऋचाओंका पंक्ति, सात ऋचाओंका
अनुष्टुप् और दो मन्त्रोंका जगती छन्द है। "नमो
हिरण्यबाहवे ' (यजु० १६। १७) मन्त्रसे लेकर
"नमो वः किरिकेभ्य:०' (यजु १६।४६) तक
व्याधिका विनाश होता है॥ १--१६॥
( आनुष्टभ नृसिंह-मन्त्र )
ॐ हूं ई उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्चलन्तं सर्वतोमुखम्।
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥
“जो उग्र, वीर, सर्वतोमुखी तेजसे प्रज्वलित,
भयंकर तथा मृत्युकौ भी मृत्यु होते हुए भी
भक्तजनोके लिये कल्याणस्वरूप हैं, उन महाविष्णु
नृसिंहका मैं भजन करता हूं!" हदयादि पाँच
अड्जोंके न्याससे युक्तं यही मन्त्र समस्त अर्थोको
सिद्ध करनेवाला है। श्रीविष्णुके द्वादशाक्षर और
अष्टक्षर मन्त्र भी विष-व्याधिका नाश करनेवाले
हैं। कुञ्जिका त्रिपुरा गौरी चन्द्रिका विषहारिणी ।'--
यह प्रसादमन्त्र विषहारक तथा आयु ओर आरोग्यका
वर्धक है। सूर्य और विनायकके मन्त्र भी
विषहारी कहे गये है । इसी तरह समस्त रुद्रमन्त्र
भी विषका नाश कलेवाले है ॥ १८--२१॥
इस श्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें "पशाङ्ग-रुदविधान ” रामक
दो सौ छियातवेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २९६ ¢
न्म
दो सौ सत्तानबेवाँ अध्याय
विषहारी मन्त्र तथा ओषध
अग्निदेव कहते है -- वसिष्ठ ! ' ॐ नमो भगवते | स्वाहा ।' --इस मन्तरसे और " ॐ नमो भगवते
रुद्राय च्छिन्द-च्छिन्द विषं ज्वलितपरशुपाणये | पक्षिरुद्राय दष्टकमुत्थापयोत्थापय, दष्टकं कम्पय