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उत्तरभाग

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लज्ञामें डूबकर दीनतापूर्ण मुखसे रोता हुआ अपनी | चितापर उसने घी छिड़क दिया और बीचरमें

पत्नीसे बोला। उस समय उसका चित्त बड़ा व्याकुल | पतिकों सुलाकर स्वयं भी उसपर चढ़ गयी। वह

था। उसने कहा-' देवि! वेश्यामें फंसे हुए मुझ

निर्दयीकी रक्षा करो। मुझ पापीने तुम्हारा कुछ भी

उपकार नहीं किया। बहुत वर्षोतक उस वेश्याके

ही साथ जीवन बिताता रहा। जो पापी अपनी

विनीत भार्याका अहंकारवश अनादर करता है,

वह पंद्रह जन्मोंतक उस पापके अशुभ फलको

भोगता है।' पतिकी यह बात सुनकर शुद्रषन्नी | {;

उससे बोली-' नाथ ! पूर्वजन्मके किये हुए पाप ||

हो दुःखरूपमें प्रकट होते हैं। जो विवेकी पुरुष

उन दुःखोंकों धैयपूर्वक सहन करता है, उसे |

मनुष्यो श्रेष्ठ समझना चाहिये ।' ऐसा कहकर

उसने स्वामीको धीरज बँधाया। वह सुन्दरी नारी

अपने पिता और भाइयोंसे धन माँग लायी। वह ||

अपने पतिको क्षौरशायों भगवान्‌ मानती थी।।

प्रतिदिन दिनमें और रातमें भी उसकी गुदाके || | ५६ |

घावको धोकर शुद्ध करती थी । रजनीकर नामक |

वृक्षका गोद लेकर उसपर लगाती ओर नखद्रारा || | ४

धीरे-धीरे स्वामीके कोढ़से कौड़ोंको नीचे गिराती ||

धी। फिर मोरपंखका व्यजन लेकर उनके लिये

हवा करती थी। माँ! वह श्रेष्ठ नारी न रातमें

सोती थी, न दिनमें। थोड़े दिनोंके बाद उसके

पतिको त्रिदोष हो गया। अब वह बडे यत्नसे

सोंठ, मिर्च और पीपल अपने स्वामीको पिलाने

लगी। एक दिन सर्दीसे पीड़ित हो काँपते हुए.

पतिने पन्नीकौ अँगुली काट ली। उस समय

सहसा उसके दोनों दाँत आपसमें सट गये और

वह कटी हुई अँगुली उसके मुँहके भीतर ही रह

गयी। महारानी! उसी दशामें उसकी मृत्यु हो

गयी। अब वह अपना कंगन बेचकर काठ

खरीद लायी और उसको चिता तैयार की।

सुन्दर अङ्गोवालौ सती प्रज्वलित अग्रिमे देहका

परित्याग करके पतिको साथ ले सहसा देवलोकको

चली गयी । उसने, जिसका साधन कठिन है, ऐसे

दुष्कर कर्मद्वारा बहुत-सी पापराशिर्योको शुद्ध कर

दिया था।'

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