Home

अध्याव ४]

यत्राखण्डलदन्तिदन्तमुसला-

न्याखण्डितान्याहवे

धारा यत्र पिनाकपाणिपरशो-

राकुण्ठतामागमत्‌ ॥

तन्मे तावदुरो नृसिरहकरजै-

व्यदीर्यत साम्प्रतं

दैवे दुर्जनतां गते तृणमपि

प्रायोऽप्यवज्ञायते

एबं वदति दैत्येन ददार नरकेसरी ।

इदयं दैत्यराजस्य पद्मपत्रमिव द्विपः॥ ३१

शकले द्वे तिरोभूते नखरन्धे महात्यनः।

ततः क्र यातो दुष्टोऽसाविति देवोऽतिविस्मितः ॥ ३२

निरीक्ष्य सर्वतो राजन्‌ वृथैतत्कर्म पेऽभयत्‌।

इति संचिन्त्य राजेन्द्र॒ नरसिंहो महाबलः ॥ ३४

व्यधूनयल्करावुच्यैस्तत्स्ते शकले वृप।

नखरन्धान्निपतिते भूमौ रेणुसपे हरः ॥ ३४

दृष्टा व्यतीतसंरोषो जहास परमेश्वरः ।

पुष्पवर्षं च वर्षन्तो नरसिंहस्य मूर्धनि ॥ ३५

देवाः सब्रह्मकाः स्वे आगताः प्रीतिसंयुता ।

आगत्य पूजयामासुर्नरसिंहं परं प्रभुम्‌ ॥ ३६

ब्रह्मा च दैत्यराजान॑ प्रह्वादमभिषेचयत्‌।

धर्मे रतिः समस्तानां जनानामभवत्तदा ॥ ३७

इन्द्रोऽपि सर्बदेवैस्तु हरिणा स्थापितो दिवि ।

नरसिंहोऽपि भगवान्‌ सर्वलोकहिताय वै॥ ३८

श्रीशैलशिखरं प्राप्य विश्रुतः सुरपूजितः ।

स्थितो भक्तहितार्थाय अभक्तानां क्षयाय च ॥ ३९

इत्येतश्ररसिंहस्य माहात्यं यः पठेन्नरः ।

शृणोति वा नृपश्रेष्ठ मुच्यते सर्वपातकैः ॥ ४०

॥ ३०

भृसिंहका प्रादुर्भाव और हिरण्पकशिपुका वध

5 ब॥----ू2:.-->->->-ऋछरून न: 2 :> ऋ ्कच्०७, 5 «22७ ~

१५७

"हाय ! युद्धके समय देवराज इनदरके वाहन गजराज़

एेरावतके मूसल-जैसे दाँत जहाँ टकराकर दुकड़े-टुकड़े

हो गये थे, जहाँ पिनाकपाणि महादेवके फरसेकी तीखो

धार भौ कुण्ठित हो गयी थी, यही मेरा वक्षःस्थल इस

सपय नृसिंहके नखोंद्वारा प्रदम जा रहा है। सच है, जय

भाग्य खोटा हो जाता है, तब तिनका भी प्रायः अनादरं

करने लगता है'॥ ३०॥

दैत्यराज हिरण्यकशिपुं इस प्रकार कह हो रहा

था कि भगवान्‌ नृसिंहने उसका इदयदेश विदीर्ण कर

दिया--ठीक उसी तरह, जैसे हाथी कमलके पत्तेकों

अनायास हो छिन्न-भिन्र कर देता है। उसके शरीरके

दोनों टुकड़े महात्मा नृसिहके नखोंके छेदमें घुसकर

छिप गये। राजन्‌! तत्र॒ भगवान्‌ सब ओर देखकर

अत्यन्त विस्मित हो सोचने लगे-'अहो! यह दुष्ट कहाँ

चला गया? जान पड़ता हैं, मेरा यह सारा उद्योग हो

व्यर्थ हो गया'॥ ३१-३२. ४

राजेन्द्र! सहायली नृसिंह इस प्रकार चिन्तापे पड़कर

अपने दोनों हाथोंको बड़े जोरसे झाड़ने लगे। राजन्‌!

फिर तो बे दोनों टुकड़े उन भगषान्‌के नख-छिद्रसे

निकलकर भूमिपर गिर पड़े, वे कुचलकर धूलिकणके

समान हो गये थे। यह देख रोपहोन हो वै परमेश्वर

हँसने लगे। इसी समय ब्रह्मादि सभौ देवता अत्यन

प्रसन्न हो वहाँ आये और भगवान्‌ नरसिंहके यस्तकपर

फूलोकौ वर्षा करने लगे। पास आकर उन सबने उन

परम प्रभु नरसिंहदेवका पूजन किया॥ ३३--३६॥

तदनन्तर ब्रह्मजीने प्रह्मादकों दैत्योंके गाजाफे पदपर

अभिषिक्त किया। उस समय समस्त प्राणियोंका धर्मभे

अनुराग हो गया। सम्पूर्ण देवताओं सहित भगवान्‌ विष्णुने

इ्द्रको स्वर्गके राज्यपर स्थापित किया। भगवान्‌ नृसिंह

भी सम्पूर्ण लोकोंका हित करनेके लिये श्रोशैलके शिखरपर

जा पहुंचे। वहाँ देवताओंसे पूजित हो ये प्रसिद्धिको प्रात

हुए। ये भक्कोका हित और अभकॉका नाज्ञ करतेके

लिये वहीं रहने लगे ॥ ३७-३९ ॥

नृपक्रेष्ट! जो सनुष्य भगवान्‌ नरसिंहके इस माहात्म्यकों

पढ़ता अथवा सुनता है, वह सत्र पापोसे मुक्त हों जाता