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आ* २३ ] का

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भैम निमि मि मै निनि मि निति आय कि म तिः तिम त म मै ति त ति मौ ति मि त म ति मौ निः नि मै वि लय मै त आय जे नि जे के नौ नौ

उस समय उनके मन्द हास्ययुक्त मुखकमलको देखकर

देवहूतिका चित्त लुभा गया ॥ २१॥ मनुजीने देखा

कि इस सम्बन्ध महायान शतरूपा और राजकुमारोको

स्पष्ट अनुमति है, अतः उन्होंने अनेक गुणोंसे सम्पन्न

कर्दमजीको उन्हीकि समान गुणवती कन्याका प्रसन्नता-

पूर्वक दान कर दिया ॥ २२ ॥ महारानी शतरूपाने भी बेटी

ओर दामादको बड़े प्रेमपूर्वक बहुत-से बहुमूल्य वस

आभूषण और गृहस्थोचित पात्रादि दहेज दिये ॥ २३ ॥

इस प्रकार सुयोग्य यरे अपनी कन्या देकर महाराज मनु

निश्चित्त हो गये । चलती बार उसका वियोग न सह

सकनेके कारण उन्होने उल्कण्ठावश विद्वलचित्त होकर

उसे अपनी छातोंसे विपरा लिया और 'बेटौ ! बेरी !'

कहकर रेने ले । उनकी आँखोंसे आँसुओंकी झड़ी लग

गयी और उनसे उन्होंने देवहूतिके सिरके सारे बाल भिगो

दिये॥ २४-२५ ॥ फिर वे मुनिवर कर्दमसे पूछकर, उनकी

आज्ञा ले रानीके सहित रथपर सवार हुए और अपने

सेवकोसहित ऋषिकुलसेवित सरस्वतौ नदीके दोनों तीरोंपर

मुनियोकि आश्रमोंकी शोभा देखते हुए अपनी राजधानी

चले आये॥ २६-२७ ॥

जब ब्रह्मावर्तकी प्रजाको यह समाचार मिला कि

उसके स्वामी आ रहे हैं तब वह अत्यन्त आनन्दित होकर

स्तुति, गीत एवं बाजे-गाजेके साथ अगवानी करनेके लिये

अंद्यावर्ती राजधानीसे बाहर आयी॥२८॥ सब

प्रकारकी सम्पदाओंसे युक्त बर्हिष्मती नगरी मनुजीकी

राजधानी थी, जहाँ पृथ्वीको रसातलसे ले अनेके पश्चात्‌

शरीर कैंपाते समय श्रीवगाहभगवानके रोम झड़कर गिरे

ये॥२९॥ वे रोम ही निरन्तर हरे-भरे रहनेबाले कुश

ओर कास हुए, जिनके द्वारा मुनियोने यज्ञे विश्न

इलनेवाले दैत्योंका तिरस्कार कर भगवान्‌ यज्ञपुरुषकी

यरज्ञोंद्राण आराधना की है॥ ३० ॥ महाराज मनुने भी

श्रीवराहभगवानसे भूमिरूप निवासस्थान प्राप्त होनेपर इसी

स्थानमें कुश और कासकी बर्हि(चटाई) विच्छकर

श्रोयज्ञभगवानकी पूजा की थी॥ ३१॥

जिस वर्हिष्मती पुरीमें मनुजी निवास करते थे, उसमें

पहुँचकर उन्होंने अपने त्रितापनाशक भवनमें प्रवेश

किया ॥ ३२ ॥ वहाँ अपनी धार्या और सन्तिके सहित वे

धर्मं, अर्थ और मोक्षके अनुकूल भोगोंकों भोगने लगे।

प्रातःकाल होनेपर गन्धर्वगण अपनी खियोकि सहित उनका

गुणगान करते थे; किन्तु मनुजी उसमें आसक्त न होकर

प्रमपूर्ण हदयसे श्रीहरिकी कथाएँ. ही सुना करते

थे ॥ ३३ ॥ वे इच्छानुसार भोगोंका निर्माण करनेमे कुशल

थे; किन्तु मननशोल और भगवत्परायण होनेके कारण

भोग उन्हें किचित्‌ भी विचलिते नहीं कर पाते थे ॥ ३४ ॥

भगवान्‌ विष्णुकी कथाओंका श्रवण, ध्यान, रचना और

निरूपण करते रहनेके कारण उनके मन्वन्तरकों व्यतीत

करनेवाले क्षण कभी व्यर्थ नहीं जाते थे ॥ ३५॥ इस

प्रकार अपनी जाग्रत्‌ आदि तीनों अवस्थाओं अथवा तीनों

गुणोंकों अभिभूत करके उन्होंने भगवान्‌ वासुदेयके

कथाप्रसज़में अपने मन्वन्तरके इकहत्तर चतुर्युग पूरे कर

दिये ॥ ३६॥ व्यासनन्दन विदुरजौ ! जो पुरुष श्रीहरिके

आश्रित रहता है, उसे शारीरिक, मानसिक, दैविक

मानुषिक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार कष्ट पहुँचा

सकते हैं ॥ ३७॥ मनुजी निरन्तर समस्त प्राणियोंके हितमें

लगे रहते थे। मुनियोकि पृष्नेपर उन्होंने मनुष्योंके तथा

समस्त वर्ण और आश्रमोके अनेक प्रकारके मड्डलमय

धमेव भी वर्णन किया (जो मनुसंहिताके रूपमे अव भी

उपलब्ध है) ॥ ३८ ॥

जगतके सर्वप्रथम सम्राट्‌ महाराज मनु वास्तवे

कीर्तनके योग्य थे । यह मैंने उनके अद्भुत चरित्रका वर्णन

किया, अव उनकी कन्या देवहूतिका प्रभाव सुनो ॥ २९ ॥

ऋ के कं हे के

तेईसवाँ अध्याय

कर्दम और देवहूतिका बिहार

श्रीपैत्रेयजीने कह्ा--विदुरजी ! माता-पिताके चले

जानेपर पतिके अभिप्रायकरों समझ लेनेमें कुशल

साध्वी देवहूति कर्दमजौकी प्रतिदिन प्रेमपूर्वक सेवा करने

लगी, ठीक उसी तरह, जैसे श्रीपार्वतीजी भगवान्‌

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