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सन्त्यरण्ये हामूल्यानि पत्रपुष्पाणि शाखिनाम्‌॥ ५७

तोयं नदीतडागेषु देव: साधारणः स्थित:।

मनो नियमयेदेकं विद्यासाधनकर्मणि॥ ५८

मनो नियमितं येन मुक्तिस्तस्य करे स्थिता॥ ५९

मार्कण्डेच उ्लाच

लिये तो कहत

सुकर है। परंतु जो अरण्यम रहते हैं, उन्हें

भगक्षानृकी पराके लिये वृक्षोंके पत्र-पुष्य पिता मूल्य

प्राप्त हों सकते हैं। जल नदी और तडाग आदिमे सुलभ

है हौ और भगवान्‌ नृसिंह भी सबके लिये समान है;

केवल उन उपासनाके साधनभूत फर्मसें मतकी एकाग्रता

चाहिये। जिसने मनका नियमन कर लिया है, मुक्ति

उसके हाथमें ही टै ॥५१--५९॥

बोले--इस प्रकार भूगुजीकी आज्ञासे

मैंने तुमसे यहाँ भगवान्‌ विष्णुके पूजनका वर्णन किया

है। तुम प्रतिदिन भगवान्‌ विष्णुका पूजन करों और

वदस्व चान्यत्कथयामि किं ते॥६० | बोलो, अब मैं तुम्हें और क्या यताऊँ?॥&६० #॥

ती श्रोतराष्िएुराणे सहलानीकचरिते श्रीविष्णोः पृणानिधिनग एतुस्तिशो: ध्याव: ॥ २४४

इस पज्र औजपसिंहपुफचके अस्त शलस्य कारिक पतङ्गे जनिष्ये पो विधि कमक यिव अश्वाय पूरा हुआ» ३४५

+ ^

चश्चहोम और कोटिहोमकी विधि तथा फल

रोषाच

अहो महत्त्वया प्रोक्तं विष्णाराधनर्ज फलम्‌।

सुषास्ते मुनिशार्दूल ये विष्णुं नार्चयन्ति यै॥ ९

तवत््मसादाच्छरुतं होतत्ररसिंहार्चनक्रमम्‌।

भक्त्या तं पूजयिष्यामि कोटिहोमफलं वद ॥ २

प्रर्कप्डेय उकाच

इममर्थं पुरा पृष्टः शौनको गुरुणा नृप।

यत्तस्मै कथयापास शौनकस्तद्रदामि ते॥ ३

शौनकं तु सुखासीनं पर्यपृच्छद वृहस्पतिः ।

शृस्पतिस्वाषे

लक्षहोमस्य या भृमिः कोटिहोमस्थ या शुभा॥ ४

तां मे कश्य चिप्र होमस्य चरिते विधिम्‌।

म्क्कण्डेद उकार

इत्युक्तौ गुरुणा सोऽथ लक्षहोमादिकं चिधिम्‌॥ ५

ज्नौनको वक्तमारेभे यथावन्नपसत्तम।

राजा बोले-- अहौ ¦ आपने श्रौतिष्णुकौ आराधनासे

होनेवाले यहुत चदे फलका वर्णन किया । मुनिश्रेष्ठ! जो

भगयान्‌ विष्णुको पूजा नहों करते, वे अवश्य ही

[ मोहनिद्रामे) सोये हुए है । मैने आपको कृपासे भगवान्‌

नुखिंहके पूजनतका यह क्रम सुना; अब मैं भक्तिपूर्वक

उनकी पूजा करूँगा। आप कृपा करके (लक्षहोम तथा)

कोटिहोमका फल यताइये॥ १ २४

पार्कण्डेयजी बोले तृप ! पूर्बकालमें इसी विषयको

बृहस्पतिजीने शौनक ऋषिसे पूछा था, इसके उत्तरमें

उनसे शौरकजीनै जो कुछ खताया, यहीं मैं तुमसे कह

रहः हूँ। सुखपूर्वक यैदे हुए शौनकजीसे यूहस्पतिजीने

इस प्रकार प्रश्न किया॥ ३४. ॥

बृहस्पतिजी योले--विप्रेद्ध ! लक्ष्क्रेम और कोटिहोम

के लिये जो भुभि प्रशस्ते हो, उसको मुझे बताइये और

होमकर्मको चिधिक्रा भौ वर्णन कौजिये॥ ४१८, ॥

मार्कण्डेयजी बोले नृपवर ¦ बृहस्पति जके इस

प्रकार कहनेपर शौनकजोने लक्षहोम आदिकी विधिका

यधायत्‌ चने आरम्भ किया। «५; ॥

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