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नाभि और दो नेमियोंसे युक्त है। साथ ही बारह

स्वरोंसे सम्पन्न है। इस प्रकार चक्रका चिन्तन

करनेके पश्चात्‌ विद्रान्‌ पुरुष पृष्ठदेशमें प्रकृति

आदिका निवेश करे। फिर अरॉके अग्रभागमें

बारह सूर्योका पूजन करे। तदनन्तर वहाँ सोलह

कलाओंसे युक्त सोमका ध्यान करे। चक्रकी

नाभिमें तीन वसन (वस्त्र या वासस्थान)-का

चिन्तन करे। तत्पश्चात्‌ श्रेष्ठ आचार्य पद्यके भीतर

द्वादशदल-पद्मयका चिन्तन करे ॥ ३७--४४॥

उस पद्ममें पुरुष-शक्तिका ध्यान करके उसकी

पूजा करे। फिर प्रतिमामें श्रीहरिका न्यास करके

गुरु यहाँ श्रीहरि तथा अन्य देवताओंका पूजन

करे। गन्ध, पुष्प आदि उपचारोंसे अड्र और

आवरणों सहित इष्टदेबका भलीभाँति पूजन करना

चाहिये। द्वादशाक्षर-मन्त्रके एक-एक अक्षरको

बीजरूपमें परिवर्तित करके उनके द्वारा केशव

आदि भगवद्विग्रहोंकी क्रमश: पूजा करे। द्वादश

अरोंसे युक्त मण्डलमें लोकपाल आदिकी भी

क्रमसे अर्चना करें। तदनन्तर, द्विज गन्ध, पुष्प

आदि उपचारोंद्वारा पुरुषसूक्तसे प्रतिमाकी पूजा

करे और श्रीसूक्तसे पिण्डिकाकी। इसके बाद

जनन आदिके क्रमसे वैष्णब-अग्निको प्रकट

करे। तदनन्तर विष्णुदेवता-सम्बन्धी मन्‍्ह्रोंद्वारा

अग्निमें आहुति देकर विद्वान्‌ पुरुष शान्ति-जल

तैयार करे और उसे प्रतिमाके मस्तकपर छिड़ककर

हवीमभि:०' इत्यादि मन्त्रसे अग्निका प्रणयन

करे। अग्निप्रणयन-कालमे “त्वमग्ने* द्युभिः०'

इत्यादि मन्त्रका पाठ किया जाता है ॥ ४५--५१॥

प्रत्येक कुण्डमें प्रणवके उच्चारणपूर्वक पलाशकी

एक हजार आठ समिधाओंका तथा जौ आदिका

भी होम करे। व्याहति-मन्त्रसे घृतमिश्रित तिलोंका

और मूलमन्त्रसे घीका हवन करे। तत्पश्चात्‌

मधुरत्रय (घी, शहद और चीनी)-से शान्ति-होम

करे। द्वादशाक्षर-मन्त्रसे दोनों पैर, नाभि, हृदय

और मस्तकका स्पर्शं करे। घी, दही और दूधकी

आहुति देकर मस्तकका स्पर्श करे। तत्पश्चात्‌

मस्तक, नाभि और चरणोंका स्पर्श करके क्रमशः

गङ्गा, यमुना, गोदावरी और सरस्वती-इन चार

नदियोंकी स्थापना करे । विष्णु-गायत्रीसे* अग्निको

प्रज्वलित करे और गायत्री-मन्त्रसे उस अग्ने

चरु पकावे। गायत्रीसे ही होम और बलि दे।

तदनन्तर ब्राह्मणोंको भोजन करावे ॥ ५२-५६॥

मासाधिपति बारह आदित्योंकी तुष्टिके लिये

आचार्यको सुवर्णं और गौकी दक्षिणा दे । दिक्पालोको

बलि देकर रातमें जागरण करे। उस समय

बेदपाठ और गीत, कीर्तन आदि करता रहे। इस

प्रकार अधिवासन-कर्मका सम्पादन करनेपर मनुष्य

अग्निका प्रणयन करे। विद्वन्‌ पुरुषको चाहिये कि | सम्पूर्ण फलोंका भागी होता है॥५७-५९॥

इस प्रकार आदि आरनेय महापुराणमें 'देवाधिवास-विधिका वर्णन” नामक

उनसठकाँ अध्याय पूरा हुआ॥५९ ॥#

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१. अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्लुवे॥ देवों २५ आसादयादिह ॥ (यजु> २२। १७)

२. अग्निमग्निं बः समिधा दुवस्यत परियं प्रियं चो अतिथिं गृणीषणि । उप वो गौरभिरमृतं विवासत देवो देवेषु यते हि वायं देवो देवेषु

वनते हि तो दुव:॥ (ऋ० मं० ६११५।६)

३. अग्निमण्निं हवीमभिः सदा हवन्त विश्पतिम्‌ । हव्यवाहं पुरुष्रियम्‌॥ { ऋ० मं० १, सू ६२१२)

४, त्वमण्ने घ्ुभिस्त्वमाशुशुक्षणिर्त्वमदुभ्यस्त्वमरमनस्पदि | त्व॑

वेभ्यस्त्वमोषधीभ्यस्त्वं नृणां नृपते जायसे शुचिः ॥ (यजु० १११ २७)

५. नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि । तनो विष्णु: प्रचोदयात्‌ ।

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