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श्राद्ध प्रकरण | | १६६

तद्वत्‌ पिण्डादिकेकर्यादावाहनविसजंनम्‌ ।४१ |

ततो गृहीत्वा पिण्डभ्योमात्राः सर्वाः क्रमेण तु ।

तानेव विप्रानुप्रथमंप्राशयेद्यत्ततोनर: ।४२

सव्य जान्वाच्य होकर यत्न पूर्वक मत्सरत। से रहित और दर्भयुक्त

होकर लेखा करे तथा फिर यत्न के साथ दक्षिणाभिमुख होदर्वी को

हाथ में रखकर निर्वायों में अवनेजन करना चाहिए । एक-एक पिड़

को रखकर अनुक्रम से सम्पूर्ण दर्भो में विनीत करे और उन दर्भों'में

उस समय नास और गोत्र का भी कीर्तन करते हुए यह्‌ क्रिया सम्पन्न

करनी चाहिए ।३६-३८। उसी भाँति से इसके पश्चात्‌ पुनः प्रत्यवनेजन

करता चाहिए । इन छोओं पिण्डों को गन्ध-धूप आदि को अर्हणा के

द्वारा नमस्कार करे ।३६। यथोदित जो वेद के मन्त्र हैं उनके द्वारा

इसी प्रकार से उन सबका आवाहन करना चाहिए । जो एकाग्नि हो

उसका एक ही होना चाहिए तथा निर्वापोदक किया भी बेैंसी ही होने

४०। इसके अनन्तर यह सव सम्पादित करके उसे अन्तर में कुशो में

उनकी पत्नियों के लिए अन्न देना चाहिए । और इनके लिए भी उसी

भाँति पिण्ड आदि में आवाहन और पिसर्जन करने चाहिए ।४१। इसके

पश्चत्‌ उन्हें ग्रहण करके पिंडों से सत्र मात्रा क्रमण अर्थात्‌ क्रमपूर्वक

उस श्राद्धदाता पुरुष को यत्नपूर्वक उन्हीं विप्रों को सर्वे प्रथम खिला

देनी चाहिए ।४२।

यस्मादन्नात्‌ धृता मात्राभक्षयन्तिद्विजातयः ।

अन्वाहायेकमित्युक्तं॑तस्मात्तच्चन्द्रसंक्षये ।४३

पूवे दत्त्वातु तद्धस्तेसप वित्रं तिलोदकम्‌ ।

तत्‌ पिण्डाग्रप्रयच्छेतस्वधेषामस्त्वितिब्र.वन्‌ ।४४

वर्णयन्‌ भोजयेदन्नं मिष्ट पूतञ्च स्वेद! । ५

वर्जयेतु क्रोधपरतां स्मरन्नाराथण हरिम्‌ ।४५ :: `

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