+ पौलस्त्य, अग्नि और ऋणमोचन नापक तीर्थोंका माहात्म्य +
शन्त करनेवाला है। उस तीर्थका फल सुनो। | देते हैं। साथ ही प्रयाज और अनुयाज भी देंगे।
अग्निके भाई जातवेदा हैं, जो देवताओंके पास | देवताओंके आप ही श्रेष्ठ मुख होंगे। पहली
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हविष्य पहुँचाया करते हैं। एक दिनकौ बात | आहुतियाँ आपको ही मिलेंगी। आप जो द्रव्य हमें
है--गोदावरीके तटपर ऋषियोंके यज्ञमण्डपमें | देंगे, वही हम भोजन करेंगे।'
यज्ञ हो रहा था। अग्निके प्रिय भाई जातवेदा
देवताओंके हविष्यका वहन कर रहे थे। उसी
समय दितिके बलवान् पुत्र मधुने प्रधान-प्रधाद
ऋषियों और देवताओंके देखते-देखते जातवेदाको
मार डाला। उनके मरनेपर देवताओंको हविष्य
मिलना बंद हो गया। इधर अपने प्रिय भाई
जातवेदाके मारे जानेसे अग्निको बड़ा क्रोध हुआ।
ते गौतमी गङ्गाके जल्पे समा गये। अग्निके
जलमें प्रवेश करनेपर देवता और मनुष्य जीवनका
त्याग करने लगे, क्योकि अग्नि ही उनका जीवन
है! अग्निदेव जहाँ जलमें प्रविष्ट हुए थे, उस
स्थानपर सम्पूर्ण देवता, ऋषि और पितर आये
और यह सोचकर कि बिना अग्निके हम जीवित
नहीं रह सकते, उनकी स्तुति करने लगे। इतनेमें
ही जलके भीतर उन्हें अग्निका दर्शन हुआ) उन्हें
देखकर देवता बोले- अग्ने ! आप हविष्यके
द्वारा देवताओंको,कव्य (श्राद्ध)-से पितरोंको तथा
अन्नकों पचाने और बीजको गलाने आदिके द्वारा
मनुष्योंको जीवित कीजिये।'
अग्निने उत्तर दिया--' मेरा छोटा भाई, जो इस
कार्यमें समर्थ था, चला गया। आपलोगोंका काम
करनेमें जातवेदाकी जो गति हुई है, वह मेरी भी
हो सकती है। अत: मुझे आपलोगोकि कार्य-
साधनमें उत्साह नहीं है।' तब देवताओं और
ऋषियोंने सब प्रकारसे अग्निकी प्रार्थना करते हुए
इस आश्वासनसे अग्निदेव प्रसन्न हुए। उन्हें
इस लोक और परलोके व्यापक रहनेकी शक्ति
प्राप्त हुई। वे सर्वत्र निर्भय हो गये। जातवेदा,
बृहद्धानु, सप्तार्चि, नीललोहित, जलगर्भ, शमीगर्भ
और यज्ञगर्भ-इन नामोंसे उन्होंका बोध होने
लगा। देवताओंने अग्निको जलसे निकाला और
जातवेदा तथा अग्नि दोनोंके पदपर उनका
अभिषेक करिया) कार्य सिद्ध होनेपर देवता भी
अपने-अपने स्थानको चले गये। तभीसे वह
स्थान 'बह्नितीर्थ' कहलाता है। वहाँ सात सौ
उत्तम तीर्थोका निवास है। जो जितात्मा पुरुष
उन तीर्थोंमें सत्रान और दान करता है, उसे
अश्वमेध-यज्ञका पूरा फल प्राप्त होता है। वहाँ
देवतीर्थ, अग्नितीर्थं ओर जातवेदस्तीर्थ भी हैं।
अग्निद्वारा स्थापित अनेक वर्णोके शिवलिद्गका
भी वहाँ दर्शन होता है। उसके दर्शनसे सब
यज्ञोंका फल प्राप्त होता है।
उसके बाद “ऋणमोचन' नामक तीर्थ है।
जिसके महत्त्वको वेदवेत्ता पुरुष जानते हैं। नारद!
मैं उसके स्वरूपको बतलाता हूँ, मन लगाकर
सुनो। कक्षीवान्का ज्येष्ठ पुत्र पृथुश्रवा था। वह
बैराग्यके कारण न तो विवाह करता था और न
अग्निहोत्र ही। कक्षीवान्का कनिष्ठ पुत्र भी विवाहके
योग्य हो गया था तो भी उसने परिवित्ति* होनेके
भयसे विवाह और अग्निहोत्र नहीं किये। तब पितरोंने
कहा--' हव्यवाहन ! हमलोग आपको आयु, कर्म | कक्षीवानके दोनों पुत्रोंसे परृधक्ू-पृथक् कहा--'तुम
करनेमें उत्साह और सर्वत्र व्यापक होनेकी शक्ति देव-ऋण, ऋषि-ऋण और पितृ-ऋणसे मुक्त होनेके
* बड़े भाईकी अवियाहित अवस्थामें विवाह कर लेनेवाला छोटा भाई परिविति कहलाता है। इसे शास्त्रे
दोष माना गया है।