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इस प्रकार अधिकारप्राप्त आचार्यद्वारा दीक्षा-

कर्मका सम्पादन होता हैं।* स्कन्द! गुरुको

चाहिये कि वह नित्यकर्मका विधिवत्‌ अनुष्ठान

करके शिष्यका दीक्षाकर्म सम्पन्न करे। प्रणवके

जपपूर्वक गुरु अपने कर-कमलमें अर्घ्य-जल ले

द्वारपालोंका पूजन करे। फिर विध्नोंका निवारण

करनेके अनन्तर, द्वार-देहलीपर अस्त्रन्यास करके

अपने आसनपर बैठे। शास्त्रोक्त विधिसे भूतशुद्धि

एवं अन्तर्याग करे। तिल, चावल, सरसों, कुश,

डूर्बाइकुर, जौ, दूंध और जल--इन सबको एकत्र

करके विशेषार्ष्य बनावे। उसके जलसे समस्त

द्रब्यों (पूजन-सामग्रियों)-की शुद्धि करें। फिर

तिलक-सम्बन्धी अपने सम्प्रदायके मन्त्रसे भालदेशमें

तिलक लगाबे। फिर पूर्ववत्‌ पूजन, मन्त्र-शोधन

तथा पश्चगव्य-प्राशन आदि कार्य करने चाहिये।

क्रमशः लावा, चन्दन, सरसों, भस्म, दूर्वा,

अक्षत, कुश और अन्तमं पुनः शुद्ध लावा-ये

सब * विकिर" (चिखरनेयोग्य द्रव्य) कहे गये है ।

इन सब वस्तुओंको एकत्र करके सात बार अस्त्र-

मन््रसे अभिमन्त्रित करे। अस्त्र-मन्तरद्ाय अभिमन्त्रित

जलसे इनका प्रोक्षण करके फिर कवच-मन्त्र

(हुम्‌) -से अवगुण्ठन करके यह भावना करे कि

ये विध्नसमूहका निवारण करनेवाले नाना प्रकारके

अस्त्र-शस्त्र हैं॥ १३-१८ ‡॥

तदनन्तर प्रादेशमात्र लंबे कुशके छत्तीस दलोंसे

वेणीरूप बोधमय उत्तम खड्ग बनाकर उसे सात

बार जपते हुए शिव-मन्त्रसे अभिमन्त्रित करे ।

* सोमलम्भुकौ " कर्मकाण्ड -क्रमावलो " (श्लोक ६१९-६२०१)

श्लोक और अधिक उपलब्ध होते हैं, जो इस प्रकार हैं--

फिर उसे शिवस्वरूप मानकर भावनाद्वारा अपने

हृदयमें स्थापित करें। साथ ही जगदाधार भगवान्‌

शिवकी जो झाँकी अपनेको अभीष्ट हो, उसी

रूपमें उनका ध्यान-चिन्तन करके निष्कल परमात्मा

शिवका अपने भीतर न्यास करे। तत्पश्चात्‌ यह

भावना करे कि “मैं साक्षात्‌ शिव हूँ।' फिर

सिरपर (मूल-मन्त्रसे अभिमन्त्रित) श्वेत पगड़ी

रखकर अपने शरीरको (गन्ध, पुष्प एवं आभूषणोंसे)

अलंकृत करे। तत्पश्चात्‌ गुरु अपने दाहिने हाथपर

सुगन्थ -द्रव्य अथवा कुड्डकुमद्वारा मण्डलका निर्माण

करें। फिर उसपर विधिपूर्वक भगवान्‌ शिवकी

पूजा करे। इससे वह 'शिवहस्त' हो जाता है। उस

तेजस्वी शिवहस्तकों शिव-मन्त्रसे अपने मस्तकपर

रखकर यह दुद्‌ भावना करे कि “मैं शिवसे

अभिन्‍ और सबका कर्तां साक्षात्‌ परमात्मा शिव

ही हूँ।' जब गुरु ऐसी भावना कर ले, तब वह

यज्ञमण्डपमे कर्मोका साक्षी, कलशे यज्ञका

रक्षक, अग्निर्मे होमका अधिष्ठान, शिष्ये उसके

अज्ञानमय पाशका उच्छेद करनेवाला तथा

अन्तरात्मा अनुग्रहीता -इन पाँच आकारोंमें

अभिव्यक्त ईश्वररूप हो जाता है। गुरु इस

भावको अत्यन्त दृढ़तर कर ले कि “वह परमेश्वर

मैं ही हूँ"॥ १९--२५॥

तदनन्तर ज्ञानरूपी खड्ग हाथमें लिये गुरु

यज्ञमण्डपके नैर्त्यकोणवाले भागमें उत्तराभिमुख

स्थित हो, अर्घ्य, जल और पञ्चगव्यसे उस

मण्डपका प्रोक्षण करे। ईक्षण आदि चतुष्पथान्त-

-में "इत्थं लब्धाधिकारेण दीक्षाचार्येण साध्यते।' इस पंक्तिके याद दो

स॒ च सद्देशसम्भूतः सुप्ररर्तिः श्रुतशीलवान्‌ ॥ ञनाचारों गुणोपेतः क्षमी शुद्धाशयों बर:।

देशकालगुणाचारो गुरुभक्छिसमत्वितः ॥ जिवानुष्याक्वान्‌ शस्तो विरक्तश्च प्रशस्यते ।

*दीक्षाप्राप्त शिष्य यदि उत्तम देशे उत्पन, सुन्दर शरौरकाला, शास्त्राध्ययन एवं शीलसे सम्पन्न, ज्ञानी, सदाचारो, गुणवान्‌,

अमाशील, शुद्ध अन्तःकरणसे युक्त, ओह, देश-कालोचित गुण और आचारसे सुशोभित, गुरुभक्त, शिवध्यानपरायण तथा बिरक्त हो तो बह

उत्तम मानो गया है और उसकी प्रशंसा की जाती है ।'

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