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आ» २४ )

* अष्टम स्कन्ध *

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पहुँच जाते हैं, तब आपको प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये

हमें बन्धनसे छुड़ाकर वास्तविक मुक्ति देनेवाले परम गुरू

आप ही है॥ ४६ ॥ यह जीव अज्ञानी है, अपने ही कमोसे

वैधा हुआ है। वह सुखकी इच्छासे दुःखप्रद कर्मोका

अनुष्ठान करता दै । जिनकी सेवासे उसका यह अज्ञान नष्ट

हो जाता है, वे ही पेरे पम गुरु आप मेरे हृदयकी गाँठ

काट दें ॥ ४७ ॥ जैसे अग्निमे तपानेसे सोने-चाँदीके मल

दूर हो जाते हैं और उनका सच्चा स्वरूप निखर आता है,

वैसे ही आपकी सेवासे जीव अपने अन्तःकरणका

अज्ञानरूप मल त्याग देता है और अपने वास्तविक

स्वरूपमें स्थित हो जाता है! आप सर्वशक्तिमान्‌

अविनाशी प्रभु ही हमारे गुरुजनोंके भी परम गुरु हैं। अतः

आप ही हमारे भी गुरु बनें ॥ ४८ ॥ जितने भी देवता, गुरु

और संसारके दूसरे जीव हैं--वे सब यदि स्वतन्ररूपसे

एक साथ मिलकर भी कृपा करें, तो आपकी कृपाके दस

हजारबें अंशके अंशको भी बराबरी नहीं कर सकते।

प्रभो ! आप ही सर्वशक्तिमान्‌ हैं। मैं आपको शरण ग्रहण

करता हूँ॥४९॥ जैसे कोई अंधा अंधेको हो अपना

पथप्रदर्शक बना ले, वैसे ही अज्ञानी जीव अज्ञानीको ही

अपना गुरु बनाते हैं। आप सूर्यके समान स्वय॑प्रकाश और

समस्त इन्द्रियोंके प्रेरक हैं। हम आत्पतत्त्वके जिज्ञासु

आपको हौ गुरुके रूपे चरण करते हैं॥ ५० ॥ अज्ञानी

मनुष्य अन्ञानियोको जिस ज्ञानका डपदेश करता है, वह तो

अज्ञानं ही है। उसके द्वारा संसाररूप घोर अन्धकारकी

अधिकाधिक प्राप्ति होती है। परन्तु आप तो उस

अविनाशी और अमोघ ज्ञानका उपदेश करते हैं, जिससे

मनुष्य अनायास ही अपने वास्तविक स्वरूपको प्राप्त कर

लेता है ॥ ५१॥ आप सारे लोकके सुद्‌, प्रियतम, ईश्वर

और आत्मा हैं। गुरु, उसके द्र प्राप्त होनेवाला ज्ञान और

अभोष्टकी सिद्धि भी आपका ही स्वरूप है। फिर भी

कामनाओंके बन्धनमें जकड़े जाकर लोग अंधे हो रहे हैं।

उन्द इस बातका पता हौ नहीं है कि आप उनके हृदयमें

ही विराजमान हैं॥ ५२ ॥ आप देवताओकरि भी आगाध्यदेव,

परम पूजनीय परमेश्वर हैं। मैं आपसे ज्ञान प्राप्त करनेके

लिये आपकी शरणमें आया हूँ। भगवन्‌ !आप परमार्थको

प्रकाशित करनेवाली अपनी वाणीके द्वारा मेरे हदयकौ

ग्रन्थि काट डालिये और अपने स्वरूपकों प्रकाशित

कीजिये ॥ ५३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं--परीक्षित्‌! जब राजा

सत्यत्रतनै इस प्रकार प्रार्थना की, तत मत्स्यरूपधारी

पुरुषोत्तम भगवानने प्रलयके समुद्रमें विहार करते हुए उन्हें

आत्पतत्वका उपदेश किया ॥ ५४॥ भगवानने राजर्षि

सत्यव्रतकों अपने स्वरूपके सम्पूर्ण रहस्थका वर्णन करते

हुए ज्ञान, भक्ति और कर्मयोगसे परिपूर्ण दिव्य पुराणका

उपदेश किया, जिसको 'मत्स्यपुराण' कहते हैं॥ ५५॥

सत्यव्रतने ऋषियोंके साथ नावमें बैठे हुए हो सन्देहरहित

होकर भगवानके द्वारा उपदिष्ट सनातन ब्रह्मस्वरूप

आत्मतत्त्व श्रवण किया॥ ५६॥ इसके बाद जब

पिछले प्रलयका अन्त हो गया और ब्रह्माजीकी नींद टूटी,

तब भगवानने हयग्रीव असुरको मारकर उससे वेद छोन

लिये और ब्रह्माजीको दे दिये ॥ ५७॥ भगवानकी कृपासे

राजा सत्यव्रत ज्ञान और विज्ञानसे संयुक्त होकर इस

कल्पमें वैवस्वत मनु हुए ॥ ५८ ॥ अपनी योगमायासे

मत्स्यरूप धारण करनेवाले भगवान्‌ विष्णु ओर राजर्षि

सत्यव्रतका यह संवाद एवं श्रेष्ठ आख्यान सुनकर मनुष्य

सब प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता ह ॥ ५९ ॥ जो मनुष्य

भगवान्‌के इस अवतारा प्रतिदिन कीर्तन करता है, उसके

सारे सङ्कल्प सिद्ध हो जाते हैं और उसे परमगतिकी प्राप्ति

होती है॥ ६० ॥ प्रलयकालीन समुद्रमें जब ब्रह्माजी सो

गये थे, उनकी सृष्टिशक्ति लुप्त हो चुकी थी , उस समय

उनके मुखसे निकली हुई श्रुतियोंको चुराकर हयग्रीव दैत्य

पातालमें ले गया था। भगवान्‌ने उसे मारकर ते श्रुतियाँ

ब्रह्मजीकों लौटा दीं एवं सत्यत्रत तथा सप्तर्षियोंको

ब्रह्मतत्वका उपदेश किया। उन समस्त जगत्‌के परम

कारण लीलामत््य भगवान्‌कों मैं नमस्कार करता

हूँ॥ ६१॥

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॥ इति अष्टम स्कन्ध समाप्त ॥

॥ हरिः ॐ> तत्सत्‌ ॥

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