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* अध्याय २४९ * ४८१

कक के के के के केक ननन

दो सौ उनचासवाँ अध्याय

धनुर्वेदका ' वर्णन--युद्ध और अस्त्रके भेद, आठ प्रकारके स्थान, धनुष,

बाणको ग्रहण करने और छोड़नेकी विधि आदिका कथन

अग्निदेव कहते हैं--वसिष्ठ! अब मैं चारः | वर्णन किया गया है। यन्त्रमुक्त, पाणिमुक्त,

पादोंसे युक्त धनुर्वेदका वर्णन करता हूँ। धनुर्वेद | मुक्तसंधारित, अमुक्त और बाहुयुद्ध--ये ही धनुर्वेदके

पाँच प्रकारका होता है। रथ, हाथी, घोड़े और | पाँच, प्रकार कहे गये हैं। उसमें भी शस्त्र-सम्पत्ति

पैदल-सम्बन्धी योद्धाओंका आश्रय लेकर इसका | और अस्त्र-सम्पत्तिके भेदसे युद्ध दो प्रकारका

१. * धनुर्वेद" यजुवेदका उपवेद है। प्राचीनकालमें प्रायः सभो सभ्य देशोंमें इस विद्या प्रधार था। भारतवर्षे एसे विद्याके

अड़े-यड़े ग्रन्थ थे, जिन्हें क्षत्रेयफुमार अभ्यासपूर्वक पढ़ते थे। आजकल वे ग्रन्थ प्रायः सुप्त हो गये है! कुछ थोड़े-से ग्रन्थो इस

विछाका संक्षिप्त वर्णन मिलता है। जैसे शुक्रनीति, कामदकौय नीतिसार, अग्निपुराण, वीरचित्तामणि, वृद्ध शाङ्ग धर्‌, युद्धजयार्णय,

युक्तिकल्पत्तर तथा नीतिमयूछ आदि । * धनुर्वेद-संहिता' नामक एक अलप भी पुस्तक मिलत है। नेपाल (काठमाण्डू) गोरखनाथ सठके

महन्थ योगी तरहरिनाथने भी धनुर्वेदकौ एक प्राचौत पुस्तक उपलब्ध कौ है। कुछ पिद्वान्‌ ब्रह्मा और महे श्ररसे इस उपतेदको प्रादुर्भाव

माओ हैं, परन्तु मधसदन सरस्वतौका कथन हैं कि 'विश्वामिजने जिस धनुर्वेदका प्रकाश किया था, यजुर्वेदका उपवेद वही है।'

*वीरचिन्तामणि' में धनुर्वेदकी बड़ी प्रशंसा की गयी हैं।' धनुर्वेद-संहिता 'में लिखा है कि ' दुष्टों, दस्थुओं और चोर आदिसे साधुपुरुषोंका

संरक्षण और धर्मानुसार प्रजापालन “धनुर्बेद'का प्रयोजन है'। अग्निपुणणके इन चार अध्यायोंमें धनुर्वेद-विषयक महत्त्वपूर्ण रोपर

संक्षेपस्तें हो प्रकाश डाला गवा है। धनुर्वेंदपर इस समय जो ग्रन्य उपलब्ध होते हैं, उनसे अग्रिपुराणणत धनु्येदका पाठ नहो मिलता।

विश्वकोयमें ' धनुर्वेंद' शब्दपर अग्रिपुराणके ये हौ चार अध्याय उद्धव किये गये हैं। कठिफ्य हस्तलिखित प्रत्तियोंके अनुसार जो पाठ-

भेद उपश्ध हुए हैं, उक्हें दृष्टिमे रखते हुए इतर अध्यायोंका अविकल अवुवाद करवेकों चेष्टा कौ गयी है । साङ्गधेद विधालय, कालके

जैयायिक विद्रान्‌ श्रीहेवृबर ज्ञास्त्रों काश्मीर-पुस्तकालयसे अधिपुराणके धनुर्वेद-प्रकरणपर कुछ पादभेद संग्रह करके लाये थे, उससे भो

इस प्रकरणको लगानेमें सहयोग मिला है। तथापि कुछ शब्द अस्पष्ट रह गये हैं। माननोय विद्वानोंको धनुर्वेदके विषयमें विशेष ध्यान

देकर अनुसंधान करना-कराना चाहिये, जिससे भारतको इस प्राचोन विद्याका पुनरुद्धार हो सके। ( अनुयादक)

२. महाभारत, आदिपय॑, अध्याय २२०, स्लोक ७२ में लिखा है कि ' शत्रुदमन जालक अभिमन्युने वेका खन प्राप्त करके अपने

पिक अर्जुनसे चार पादों और दशविधं अद्रौते युक्त दिव्य एवं मानुष - सब प्रकारके धनुरवेदकः ज्ञान प्राप्त कर लिया।' इन चार पादोको

स्पा! करते हुए आचार्य नीलकण्ठने 'मन्रमुक्त', 'पाणिमुक्त', 'मुछामुक्त' और ' अमुक्त '-इन चार नामोंका निर्देश किया है। परंतु

मधुसूदन सरस्थतीने अपने 'प्रस्थानभेद'में धनुर्येदका जो सोक्षिप्त विवरण दिया है, उसमें चार पादोंका उल्लेख इस प्रकार हुआ है--

दौक्षापाद, संग्रहपाद, सिंद्धिपाद और प्रयोगपाद। पूर्वोक्त मन्परमुक्त आदि भेद आयुधोंके हैं, ये पादोंके काम नहों हैं। अग्रिपुसणमें चार

चादोंके वामकः विर्देश वहीं है। 'मखमुझ के स्थातपर वहाँ “यख्रमुक्त' पाठ हैं और 'मुछामुछ 'के स्थातपर 'सुछसंधारित'। इन चारोके

साथ बाहुयुद्धकयो भी जोड़कर अप्रिपुराणमें धनुर्वेद, अष्ठर या युद्धके पाँच प्रकार हो निर्दिश् किये गये हैं । अत्त: धनुर्वेदके चार्‌ प्रद उपर्युक्त

दौश्ा आदि हौ ठौ जान पड़ते हैं।

३. महाभारतमें ' चुष्पादं दशविधम्‌' कहकर धनूर्वेदके दस प्रकार कहे णये हैं। परंतु अग्निपुराणले ठसका कोई विरोधं वहीं है

अप्रिपुराणमे अस्त्र या युद्धके पाँच प्रकार्ेंकों दृष्टिमें रखकर ही वे भेद विर्दिए हुए हैं। किंतु महाभारतम धर्वदके दस अद्ञॉको लेकर

हो दस भेदोंका कथ्‌ हुआ है। उन दस अद्ञोंके नाम गोलकण्ठने इस प्रकार लिखे ह - भदान, संधान, मोक्षण, निवर्तन, स्थान, मुषि,

प्रयोग, प्रायश्चित्त, सण्डल तथा रहस्य। इन सबका परिचय इस प्रकार है--तरकससे बाणकों निकालना 'आदान' है। उसे धनुफफों

प्रत्यक्षापर रखता 'संधात' है। लक्ष्यपर छोड़ना “ मोक्षण' कहा गया है। यदि माण छोड देनेके याद यह मालूम हो जाय कि हमारा वियक्षी

निर्बल या शस्त्हीत है, तो वीर पुस्य मनत्रशक्तिसे उस बाणको लौटा लेते हैं। इस प्रकार छोड़े हुए अस्त्रकों लौटा लेना ' विवर्तन ' कहलाता

है। धनुष या उसको प्रत्यझ्षाके धारण अथवा शर्रसधानकालमें धनुष और प्रत्यक्राके मध्यदेशको “स्थान' कहा गया है। तोन या चाग

अँगुलियोंका सहयोग हो “मुष्टि' है। तज॑नो और मध्यमा अँगुलीसे अथवा मध्यमा और अकु अङ्गम बाणका संधान काना * प्रयोग” कहलाता

है। स्वतः या दूसरेसे ग्राप्त होनेयाले ज्याघात ( परत्यञ्छके आघात) और याणके गोकनेके लिये जो दस्ताने आदिका प्रयोग

किया जाता है, उसको नाम “प्रायक्धित्त' है। चक्राकार पूमते हुए रथके साथ-स्राघ पूमनेयाले लक्ष्यका वेध 'मण्डल' कहलाता है । शब्दफे

आधारपर लक्ष्य वीधन्ते अथवा एक ही समय अनेक लक्ष्योंकों बंध डालना- ये सब “रहस्य'के अन्तर्गत हैं।

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