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* श्रीमनद्धाभवत «
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4 4.4.444. 4.0.04... 4.444.444... 4.444.443... 4.9.44. आय कहे के औ है कै औ के है कै औ औ है हे ही है है हे कै ते मे की हे जे आओ
सामने सबकी कान्ति फ्रीकी पड़ गयी ॥ १९॥ उनका
श्याम वर्ण था, कम्पे सुवर्णकी करधनी तथा पौताम्बर
सुशोभित थे । सिरर सूर्यके समान देदीप्यमान मुकुट था,
मुखकमल भौरोकि समान नीली अलकावली और
कान्तिमय कुण्डलेसि शोभायपान था, उनके सुवर्णमय
आभृषणोसे विभूषित आठ भुजाएँ थीं, जो भक्तोंकी रक्षाके
लिये सदा उद्यत रहती हैं। आठों भुजाओंमें वे शङ्ख, पद,
चक्र, बाण, धनुष, गदा, खड्ग और ढाल लिये हुए थे
तथा इन सब आयुधोकि कारण वे फूले हुए कनेरके वृक्षके
समान जान पड़ते थे॥ २० ॥ प्रभुके हदयमें श्रीवत्सक्ता
चिह्न था और सुन्दर वनमाला सुशोभित थी। वे अपने
उदार हास और लीलामय कठाक्षसे सारे संसारक
आनन्दमग्न कर रहे थे। पार्षदगण दोनों ओर राजहंसके
समान सफेद पंखे और चैवर इला रहे थे। भगवानके
मस्तकपर चन्द्रमाके समान शुभ छत्र शोभा दे
रहा था॥२१॥ |
भगवान् पधारे हैं--यह देखकर इन्द्र, ब्रह्म और
महादेवजी आदि देवेश्वरॉसहित समस्त देवता, गन्धर्व और
ऋषि आदिने सहसा खड़े होकर उन्हें प्रणाम
क्रिया ॥ २२॥ उनके तेजसे सबकी कान्ति फीकी पड़
गयी, जिद्धा लड़खड़ाने लगी, वें सब-के-सत्र सकपका
गये और मस्तकपर अञ्जलि बांधकर भगवानके सामने
खड़े हो गये ॥ २३ ॥ यद्यपि भगवानकी महिमातक ब्रह्मा
आदिकी मति भी नहीं पहुँच पाती, तो भी भक्तोंपर कृपा
करनेके लिये दिव्यरूपमें प्रकट हुए श्रीहरिकी वे
अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार स्तुति करने लगे॥ २४ ॥
सबसे पहले प्रजापति दक्ष एक उत्तम पात्रमें पूजाकी
सामग्री ले नन्द-सुनन्दादि पार्षदोंसे घिरे हुए, प्रजापतियोकि
परम गुरु भगवान् यज्ञेश्वरके पास गये और अति आनन्दित
हो विनीतभावसे हाथ जोड़कर प्रार्थना करते प्रभुके
शरणापनन हुए॥ २५॥
दक्षने कहा--भगवन् ! अपने स्वरूपम आप
बुद्धिकी जाग्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओंसे रहित, शुद्ध,
चिन्मय, भेदरहित, अतएव निर्भय दै । आप मायाका
तिरस्कार करके स्वतन्तररूपसे विराजमान हैं; तथापि जब
मायासे ही जौव-भावको स्वीकारकर उसी मायामे स्थित हो
जाते हैं, तब अज्ञानी-से दीखने लगते हैं॥ २६॥
ऋत्विजोंने कहा--उपाधिरहित प्रभो ! भगवान्
रुद्रके प्रधान अनुचर नन्दीश्चरके शापके कारण हमारी बुद्धि
केवल कर्मकाण्डे ही फैंसी हुई है, अतएव हम आपके
ततत्वको नहीं जानते। जिसके लिये “इस कर्मका यही
देवता है' ऐसी व्यवस्था की गयी है--उस श्र्मप्रवत्तिक
प्रयोजक, वेदत्रयीसे प्रतिपादित यज्ञको ही हम आपका
स्वरूप समझते है ॥ २७॥
सदरस्योनि कहा--जीवॉको आश्रय देनेवाले प्रभो !
जो अनेक प्रकारके क्लेशेकि कारण अत्यन्त दुर्गम है,
जिसमें कालरूप भयङ्कर सर्प ताकमे बैठा हुआ है,
द्न्द्ररूप अनेकों गदे हैं, दुर्जनरूप जंगली जीवॉका भय है
तथा शोकरूप दावानल धधक रहा है- एसे, विश्राम-
स्थलसे रहित संसारमार्गे जो अज्ञानी जीव कामनाओंसे
पीड़ित होकर विषयरूप मृगतृष्णाजलके लिये हो
देह-गेहक भारी बोझा सिरपर लिये जा रहे हैं, वे भला
आपके चरणकमर्लोकी शरणमे कब आने लगे ॥ २८॥
स्दने कहा--वरदायक प्रभो ! आपके उत्तम चरण
इस संसारे सकाम पुरुषोको सम्पूर्ण पुरुषार्थोकी प्राप्त
करनेवाले हैं; और जिन्हे किसी भी वस्तुकी कामना नहीं
है, वे निष्काम मुनिजन भी उनका आदरपर्वक पूजन करते
है । उनमें चित्त लगा रहनेके कारण यदि अज्ञानी लोग मुझे
आचरण भ्रष्ट कहते हैं, तो कहें; आपके परम अनुग्रहे
मैं उनके कहने-सुननेका कई किचार नहीं करता ॥ २९ ॥
भृगुजीने कहा- आपकी गहन मायासे आत्मज्ञान
लुप्त हो जानेके कारण जो अज्ञान-निद्रामे सोये हुए है, वे
ब्रह्मादि देहधारी आत्मज्ञानमे उपयोगी आपके तत्को
अभीतक नहीं जान सके । ऐसे होनेपर भी आप अपने
शरणागत भक्तोंके तो आत्मा और सुहद् हैं; अतः आप
मुझपर प्रसन्न होडये ॥ ३० ॥
ब्रह्माजीने कहा--प्रभो ! पृथक्-पृथक् पदार्थोको
जाननेवाली इन्द्रियोंके द्वारा पुरुष जो कुछ देखता है, वह
आपका स्वरूप नहीं है; क्योकि आप ज्ञान, शब्दादि विषय
ओर श्रोत्रादि इद्दियोकि अधिष्ठान हैं--ये सब आपे
अध्यस्त है । अतएव आप इस मायामय प्रपञ्चसे सर्वथा
अलग दै ॥ ३६॥
इन््रने कहा- अच्युत ! आपका यह जगत्को
प्रकाशित करनेवाला रूप देवद्रोहि्योका संहार