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» पुराण परम पुण्यं भविष्यं सर्यसौस्यदम् «»
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क
द्विजो ! जैसे पिता श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार पिताके बड़े-छोटे
भाई और अपने बड़े भाई भी पिताके समान ही मान्य एवं पूज्य
है। आचार्य ब्रह्माकी, पिता प्रआपतिकी, माता पृथ्वीकी और
भाई अपनी ही मूर्ति हैं। पिता मेरुख्वरूप एवं वसिष्ठ-स्वरूप
आज्ञाका पालन करना चाहिये। इसी प्रकार पितामह एवं
पितामही (दादा-दादी) के भी पूजन-यन्दन, रक्षण, पालन
और सेवनकी अत्यन्त महिमा है । इनको सेवाके पुण्योंकी
तुलनामें कोई नहीं है, क्योंकि ये माता-पिताके भी परम पूज्य
सनातन धर्ममूर्ति हैं। ये हो प्रत्यक्ष देवता हैं, अतः इनकी रै । (अध्याय ६)
को
पुराण-श्रवणक्ती विधि तथा पुराण-बाचककी महिमा
श्ीसूतजी बोले ब्राह्मणो ! पूर्वकाले महातेजस्वी
ब्रह्माजीने पुराण-श्रवणकी जिस विधिको मुझसे कहा था, उसे
मै आपको सुना रहा है, आप सन ।
सभी पापोंसे मुक्ति हो जातो है, जो प्रात:-सायं तथा रात्रिम
पवित्र होकर पुराणकं श्रवण करता है, उसपर ब्रह्म, विष्णु
और शकर संतुष्ट हो जाते है! । प्रातःकाले इसके पढ़ने और
सुननेयालेसे ब्रह्माजी प्रसन्न होते हैं तथा सायंकालमें भगवान्
विष्णु और रातमें भगवान् शंकर संतुष्ट होते रैं । पुराण-श्रवण
करलेवालेको शुक्र वस्त्र धारण कर कृष्ण-मुगचर्म तथा कुशके
आसनपर बैठना चाहिये। आसन न अधिक ऊँचा हो और न
अधिक नचा । पहले देवता और गुरुकी तीन प्रदक्षिणा करे,
तदनन्तर दिक्पात्मेंकों नमस्कार को । फिर ऑकारमें अधिष्ठित
देवता ओको नमस्कार करें एवं शाश्वत धर्मम अधिष्ठित
घर्मशास्त्र-ग्रन््योंको भौ नमस्कार करे ॥
शरोत्ाका मुख दश्चिण दिङ्धाकी ओर् और कचकक मुख
उत्तरकी ओर द्ये । पुराण और महाभारत कथाको यही विधि
कही गयी है । हरिवंश, रामायण और धर्मजझाख्के श्रवणकी
इससे विपरीत विधि कहीं गयी है। अतः निर्दिष्ट विधिसे सुनना
या पढ़ना चाहिये। देवाल्य या तीर्थो्मिं इतिहास-पुराणके
वाचनके समय सर्वप्रथम उस स्थान और उस ततीर्थके
माहात्यका वर्णन करना चाहिये । अनन्तर पुसणादिका वाचन
करना चाहिये। माहात्यके श्रवणसे गोदानका फल सिलनता है !
गुरुकी आज्ञासे घाता-पिताका अभिवादन करना चाहिये। ये
वैदके समान, सर्वधर्ममय तथा सर्वज्ञानमय हैं। अतः
द्विजश्रेष्ट ! माता-पिताकी सेवासे अह्यकी प्राप्ति होती है।
पुराणादि पुस्तकोंका हरण करनेवात्म्र नरकको प्राप्त होता
है। येदादि अर्थो तथा तान्त्रिक मन्त्रोंकों स्वयं लिखकर उनका
याचन न करें। काच्कोकी चाहिये कि वेदमन्त्रोंका विपरीत
अर्थ न बतलायें और न वेदमनत्रोंका अशुद्ध पाठ करें। क्योकि
ये दोनों अत्यन्त पवित्र हैं, ऐसा करनेपर उन्हें पावमानी
ऋचाओंका सौ यार जप करना चाहिये। पुराणादिके प्रारम्भ,
मध्य और अवसाने तथा मन्त्रमें प्रणकक्ता उच्चारण करना
चाहिये।
देवनिर्मित पुस्तकको त्रिटेव-स्वरूप समझकर गन्ध-
पुष्पादिमे उसको पूजा करनों चाहिये। ग्रन्थके बाँधनेवाले
(धागा) सूकरो नागराज वासुकिका स्वरूप समझना चाहिये।
इनका सम्मान न करनेपर दोष होता है । अतः उसका कभी भौ
परित्याग नहीं करना चाहिये। ग्रन्थके पत्रौको भगवान्
बरह्मा, अक्षयेंक्रों जनार्दन, अक्षयो लगौ मात्राओंको अव्यय
प्रकृति, लिपिको महेश तथा लिपिको मात्राऑको सरस्वतों
समझना चाहिये।
पुराण-बाचक्कों चाहिये कि पुराण-संहिताओंपें
परिगणित सभी व्यास, जैमिनि आदि महर्षियों तथा शंकर,
विष्णु आदि देवताओंको आदि, मध्य और अवसाने
नमस्कार करें। इनका स्मरण कर धर्मशाख्ार्थवेत्ता विप्रको
पुराणादिका एकाग्रचित्त हो पाठ करना चाहिये। वाचककों
स्पशक्षरोंमें उच्चारण करते हुए सुन्दर ध्वनिमें सभी प्रकरणोंकि
तात्विक अर्थोको स्पष्ट बतल्नना चाहिये। पुराणादि-
धर्मसंहिताके श्रवणसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैद्य और ददर
विशेषत: अश्वमेध-यज्ञकत्र फल प्राप्त करते हैं एवं सभो
कामनाओकों भी श्राप कर लेते हैं तथा सभो पापोमे मुक्त
१-इतिकासपुराणानि श्रुत्या भक्त्या द्विजोत्तवाः | पुच्यते सर्वपापध्यों अ्ह्महस्थाशते च यन् ४
स्वै आ्रत्स्तथा राज सुचिर्भत्वा भूणोगि यः।तस्प किण्णूएतथा अह्या नुप्यने शङ्कग्नथ ॥ ( पध्यसरप्व, १।७।३.४॥