उत्तरपर्व ]
* श्रीवृक्षमवमी-क्रत-कथा *
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सोमाष्टमी-ब्रत-विधान
भगवान् श्रीकृष्ण खोले--महाराज ! अब मैं एक
दूसरा चते बतला रहा हूँ, जो सर्वसम्मत, कल्याणप्रद एवं
शिवलोक-प्रापक है। शक्त पक्षकी अष्टमीके दिन यदि
सोमवार हो तो उस दिन उमासहित भगवान् चन्रचूड़का
पूजन करे । इसके लिये एक ऐसी प्रतिमाकी स्थापना करनी
चाहिये, जिसका दक्षिण भाग शिवस्वरूप और वामभाग
उमा-स्वरूप हो। अनन्तर विधिपूर्वक उसे पञ्छमृतसे सान
कराकर उसके दक्षिणभागमें कर्पुरयुक्त चन्दनका उपलेपन
करें। श्वेत तथा रक्त पुष्प चढ़ाये ओर घृतमें पकाये गये
नैवेध्धका भोग लगाये। पचीस प्रज्वलित दीपकॉसे उमासहित
भगवान् चन्रचूडी आस्ती करें। उस दिन निराहार रहकर
दूसरे दिन प्रातः इसी प्रकार पूजन सम्पन्न कर तिल तथा घीसे
हवन कर व्राह्मणोकये भोजन कराये। यथाशक्ति सपत्नीक
ब्राह्मणकी पूजा करे और पितरोंका भी अर्चन करें। एक
वर्षतक इस प्रकार व्रत करके एक त्रिकोण तथा दूसरा
चतुष्कोण (चौकोर) मण्डल बनाये। ब्रिकोणमें भगवती
पार्वती तथा चौकोर मण्डपे भगवान् शंकरकों स्थापिते करें ।
तदनन्तर पूर्वोक्त विधिके अनुसार पार्वती एवं शेकस्की पूजा
करके श्रेत एवं पीत वख््॒रके दो वितान, पताका, घण्टा,
धृपदानी, दीपमाला आदि पूजनके उपकरण ब्राह्मणको समर्पित
करे और यथाशक्ति ब्रह्मण-भोजन भी कराये । ब्राह्मण-
दम्पतिका यस, आभूषण, भोजन आदिसे पूजनकर पचीस
प्रज्वलित दीपकोंसे धीरे-धीरे नीराजन करें। इस प्रकार
भक्तिपूर्वक पाँच वर्षोतक या एक वर्ष ही वरत करनेसे ब्रती
उमासहित शिवलोके निवास कर अनामय पद प्राप्त करता
है। जो पुरुष आजीवन इस व्रतको करता है, वह तो साक्षात्
विष्णुरूप ही हो जाता है। उसके समीप आपत्ति, शोक, ज्वर
आदि कभी नहीं आते । इतना विधान कहकर भगवान् श्रीकृष्ण
पुनः बोले--महायाज ! इसी प्रकार रविवार-युक्त ॐष्टमीका
भी त्रत होता है। उस दिन एक प्रतिमाके दक्षिण भागमें शिव
और वाम भागमें पार्वतीकी पूजा करे । दिव्य पद्यरागसे भगवान्
शंकरको और सुवर्णसे पार्वतीको अलंकृत क । यदि रत्रॉंकी
सुविधा न हो सके तो सुवर्णं ही चढ़ाये। चन्दनसे भगवान्
शिवको ओर कुंकुमसे देवी पार्वतीको अनुलिप्त करे । भगवती
पार्वतीको लाल वस्र ओर लाल माला तथा भगवान् शैकरको
रुद्राक्ष निवेदित कर नैवेद्यमें घृतपक्व पदार्थ निवेदित करे । शेष
सारा विधान पूर्ववत् कर पारण गव्य-पदार्थोंसे कर । उद्यापन
पूर्वरीत्या करना चाहिये । इस ब्रतको एक वर्षं अथवा लगातार
पाँच वर्ष करनेवाला सूर्य आदि ल्प्रेकॉमें उत्तम भोगको प्राप्तकर
अन्ते परमपदको प्राप्त करता है। (अध्याय ५९)
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श्रीवृक्षनवमी-क्रत-कथा
भगवान् श्रीकृष्णने कहा -- महाराज ! देवता और
दैत्योनि जय समुद्र-मन्धन किया धा, तब उस समय समुद्रते
निकली हुई लक्ष्मीको देखकर सभीकी यह इच्छा हुई कि मैं
ही लक्ष्मीको प्राप्त कर लं । लक्ष्मीकी प्राप्तिको लेकर देवता
और दैत्योंमें फरपर युद्ध होने लगा। उस समय लक्ष्मीने कुछ
देस्के लिये बिल्ववृक्षका आश्रय ग्रहण कर लिया। भगवान्
विष्णुने सभीको जीतकर लक्ष्मीका वरण किया। लक्ष्मीने
विल्ववुक्षक आश्रय ग्रहण किया था, इसलिये उसे श्रीवृक्ष भी
कहते हैं। अतः भाद्रपद मासके शुक्ल पक्षकी नवमी तिथिकों
श्रीवृक्ष-नवमीत्रत करना चाहिये । सूर्योदयके समय भक्तिपूर्वक
अनेक पुष्पो, गन्ध, वस्त्र, फल, तिलपिष्ट, अन्न, गोधूम,
धूप तथा माला आदिसे निम्नल्नस्लित मन्त्रसे बिल्ववृक्षको
पूजा करे--
श्रीनिवास नमस्तेऽस्तु ओीयुक्ष शिववल्लभ।
मपाभिलधितं कृत्वा सर्व॑विघ्रहरो भव ॥
इस विधिसे पूजा कर श्रीवृक्षकी सात प्रदक्षिणा कर उसे
प्रणाम करे । अन्तर ब्राह्मणभोजन कराकर ' श्रीदेवी प्रीयताम्”
ऐसा कहकर प्रार्थना करे । तदनन्तर स्वय भी तेल और नमकसे
रहित बिना अप्रिके संयोगसे तैयार किया गया भोजन, दही,
पुष्प, फल आदिको मिट्टीके पात्रमें रखकर मौन हो ग्रहण करे ।
इस प्रकार भक्तिपूर्वक जो पुरुष या स्त्री श्रीवृक्षका पूजन करते
है, वे अवश्य हो सभी सम्पत्तियोंकों प्राप्त करते हैं।
(अध्याय ६०)