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# पुराणौ परमं पुण्यं भविष्यं सवंसौख्यदम्‌ ल्‍

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु

ध्वजनवमी-त्रत-कथा

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले-- महाराज ! भगवती

दुर्गाद्वारा महिषासुरके वध किये जानेपर दैत्वनि पूर्व -वैरका

स्मरण कर देवताओंके साथ अनेक संग्राम किये । भगवतीने

भी धर्मकी रक्षाके लिये अनेक रूप धारण कर दैत्योंका संहार

किया । महिषासुरके पुत्र रक्तासुरने बहुत लम्बे समयतक घोर

तपस्या कर ब्रह्माजीको प्रसन्न किया और ब्रह्माजीने प्रसन्न होकर

उसे तीनों लोकॉका याज्य दे दिया । उसने वर्‌ प्राप्तकर दैत्योको

एकत्रित किया तथा इन्द्रके साथ युद्ध करनेके लिये

अमरावतीपर आक्रमण कर दिया। देवतानि देखा कि

दैत्य-सेना युद्धके लिये आ रही है, तब वे भी एकत्रित होकर

देवग़ज इन्द्रकी अध्यक्षतामें युद्धेके लिये आ डटे। घोर युद्ध

प्रारम्भ हो गया। दानवोने इतना भयंकर युद्ध किया कि देवगण

रण छोड़कर भाग गये। दैत्य रक्तासुर अमरावतीको अपने

अधीन कर राज्य करने लगा। देवगण वहाँसे भागकर

करुक्षत्रापुरीमें गये, जहाँ भववल्लभा दुर्गा निवास करती हैं।

चामुण्डा भी नवदुगके साथ वहाँ विराजमान रहती है। वहाँ

देवताओनि महालक्ष्मी, नन्दा, क्षेमकरी, शिवदूती, महारुण्डा,

भ्रामरी, चन्द्रमड्नला, रेवती और हरसिद्धि--इन नौ दुर्गाऑकी

भत्तिपूर्वक स्तुति करते हुए कहा--'भगवति ! इस घोर

संकटसे आप हमारी रक्षा करें, हमारे लिये अब दूसय कोई भी

अवलम्य नहीं है ।'

देवताओंकी यह आर्तं वाणी सुनकर बीस भुजाओंमें

विभिन्न आयुध धारण किये सिंहारूढा नवदुर्गके साथ कुमारी-

स्वरूपा भगवती प्रकट हो गयीं। तदनन्तर परम पराक्रमी और

ब्रह्माजीके वरदानसे अधिमानी अधम अब्रह्मण्य प्रचण्ड

दैत्यगण भी यहाँ आये, जिनमें इन्द्रमारी, गुल्केशी, प्रलम्ब,

नरक, कुष्ट, पुलोमा, शरभ, शम्बर, दुन्दुभि, इल्वल, नमुचि,

भौम, वातापि, भेनुक, कलि, मायावृत, बलबन्धु, कैरभ,

कालजित्‌, राहु, पौण्ड्‌ आदि दैत्य मुख्य थे । ये प्रज्वलित

अग्निके समान तेजस्वी, विविध वाहनॉपर आरूढ अनेक

प्रकारके शस्त्र, असन और ध्वजाओंकों धारण किये हुए थे ।

उनके आगे पणव, भेरी, गोमुख, शङ्ख, डमरू, डिण्डिम आदि

वाजे बज रहे थे। दैत्येनि युद्ध आरम्भ कर दिया और

भगवतीपर शर, शूल, परिघ, पट्निश, शक्ति, तोमर, कुन्त,

शतेश्री, गदा, मुद्र आदि अनेक आयुधोंकी वृष्टि करने ल ।

भगवती भी क्रोधसे प्रज्वलित हो दैत्योंका संहार करने लगीं ।

उनके ध्वज आदि चिह्नोंको बलपूर्वक छीनकर देवगणोंको सौंप

दिया। क्षणभरमें ही उन्होंने अनन्त दैत्योंका नाश कर दिया।

रक्तासुरके कण्ठको पकड़कर पृथ्वीपर पटककर त्रिशूलसे

उसका हृदय विदीर्ण कर दिया । बचे हुए दैत्पगण वसे जान

बचाकर भाग निकले। इस प्रकार देवीको कृपासे देवताओनि

विजय प्राप्तकर करछत्रपुरमें आकर भगवतीका विशेष उत्सव

मनाया। नगर तोरणों और ध्यजाओंसे अलैकृत किया गया।

राजन्‌ ! जो नवमी तिथिको उपवासकर भगवतीका उत्सव

करता है तथा उन्हें ध्वज अर्पण करता है, वह अवश्य ही

विजयी होता है।

महाराज ! अब इस त्रतकी विधि सुनिये। पौष मासके

शुक्ल पक्षकी नवमी तिथिको जानकर पूजाके लिये पुष्प अपने

हाथसे चुने और उनसे सिंहवाहिनी कुमारी भगवतौका पूजन

करे साथ ही विविध ध्वजाओंको भगवतीके सम्मुख स्थापित

करे और मालती-पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, गन्ध, चन्दन, विविध

फल, माला, वख, दधि एवं बिना अग्निसे सिद्ध विविध भक्ष्य

भगवतीको निवेदित करें एवं इस मन्रको पढ़े--

रुद्रा भगवतीं कृष्णां ग्रह नक्षत्रमालिनीम्‌ ।

प्रपन्नोऽं शिवां रात्रिं सर्वशत्रुक्षयंकरीम्‌ ॥

-+फिर कुमारियो और देवौभक्त ब्राह्मणोंकों भोजन

कराये, क्षमा-प्रार्थना करे, उपवास करे या धक्तिूर्वक एकभुक्त

रहे। इस प्रकारसे जो पुरुष नवमीको उपवास करता है और

ध्वजाओंसे भगवतीको अलंकृत कर उनकी पूजा करता है,

उसे चोर, अग्नि, जल, राजा, शत्रु आदिका भय नहीं रहता।

इस नवमी तिथिको भगवतीने विजय प्राप्त की थी, अतः यह

नवमी इन्हें बहुत प्रिय है। जो नवमीको भक्तिपूर्वक भगवतीकी

पूजा कर इन्हें ध्वजागेपण करता है, वह सभी प्रकारके सुखोंको

भोगकर अन्तमे बीरलोकको प्राप्त होता है। (अध्याय ६१)

पणर

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