संस्कारसे युक्त हो, उसका एक अग्नि (आहवनीय) | पुरुषोंके अभावमें ब्रह्मचारी ही पिण्डदान और
द्वारा दाह करना चाहिये तथा अन्य साधारण
मनुष्योंका दाह लौकिक अग्निसे करना चाहिये।*
"अस्मात् त्वमधिजातोऽसि त्वदयं जायतां पुन:।
असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा ।' इस मन्त्रको
पढ़कर पुत्र अपने पिताके शवके मुखर्मे अग्नि
प्रदान करे। फिर प्रेतके नाम और गोत्रका
उच्चारण करके बान्धवजन एक-एक बार जल-
दान करें। इसी प्रकार नाना तथा आचार्यक
मरनेपर भी उनके उदेश्यसे जलाञ्जलिदान करना
अनिवार्य है । परंतु मित्र, व्याहौ हुई बेटी-बहन
आदि, भानजे, श्वशुर तथा ऋत्विजके लिये भी
जलदान करना अपनी इच्छापर निर्भर है। पुत्र
अपने पिताके लिये दस दिनोंतक प्रतिदिन "अपो
नः शोशुचद् अयम्" इत्यादि पढ़कर
जलाञ्जलि दे। ब्राह्मणको दस पिण्ड, क्षत्रियको
बारह पिण्ड, वैश्यको पंद्रह पिण्ड और शूद्रको
तीस पिण्ड देनेका विधान है। पुत्र हो या पुत्री
अथवा और कोई, वह पुत्रकी भाँति मृत व्यक्तिको
पिण्ड दे॥ ५१--५६॥
शवका दाह-संस्कार करके जब घर लौटे तो
मनको वशमें रखकर द्वारपर खडा हो दाँतसे
नीमकी पत्तियाँ चबाये। फिर आचमन करके
अग्नि, जल, गोबर और पीली सरसोंका स्पर्श
करे। तत्पश्चात् पहले पत्थरपर पैर रखकर धीरि-
धीरे घरमें प्रवेश करें। उस दिनसे बन्धु-बान्धवोंको
क्षार नमक नहीं खाना चाहिये, मांस त्याग देना
चाहिये। सबको भूमिपर शयन करना चाहिये। वे
स्नान करके खरीदनेसे प्राप्त हुए अन्नकों खाकर
रहें। जो प्रारम्भमें दाह-संस्कार करे, उसे दस
दिनोंतक सब कार्य करना चाहिये। अन्य अधिकारी
जलाझलि-दान करे। जैसे सपिण्डोंके लिये यह
मरणाशौचकी प्राप्ति बतायी गयी है, उसी प्रकार
जन्मके समय भी पूर्ण शुद्धिकी इच्छा रखनेवाले
पुरुषोंकों अशौचकी प्राति होती है। मरणाशौच तो
सभी सपिण्ड पुरुषोंकों समानरूपसे प्राप्त होता है;
किंतु जननाशौचकी अस्पृश्यता विशेषतः माता-
पिताको ही लगती है। इनमें भी माताको ही
जन्मका विशेष अशौच लगता है, वही स्पर्शके
अधिकारसे वञ्चित होती है। पिता तो स्नान
करनेमात्रसे शुद्ध (स्पर्श करने योग्य) हो जाता
है ॥ ५७ -६१॥
पुत्रका जन्म होनेके दिन निश्चय ही श्राद्ध
करना चाहिये। वह दिन त्राद्ध-दान तथा गौ,
सुवर्ण आदि और वस्त्रका दान करनेके लिये
उपयुक्त माना गया है । मरणका अशौच मरणके
साथ और सूतकका सूतकके साथ निवृत्त होता
है। दोनोंमें जो पहला अशौच है, उसीके साथ
दूसरेकी भी शुद्धि होती है। जन्माशौचमें मरणाशौच
हो अथवा मरणाशौचमें जन्माशौच हो जाय तो
मरणाशौचके अधिकारमें जन्माशौचको भी निवत्त
मानकर अपनी शुद्धिका कार्य करना चाहिये।
जन्पाशौचके साथ मरणाशौचकौ निवृत्ति नहीं
होती । यदि एक समान दो अशौच हों (अर्थात्
जन्म-सूतकर्मे जन्म-सूतक और मरणाशौचमें
मरणाशौच पड़ जाय) तो प्रथम अशौचके साथ
दूसरेको भी समाप्त कर देना चाहिये ओर यदि
असमान अशौच हो (अर्थात् जन्माशौचरमे मरणाशौच
और मरणाशौचमें जन्माशौच हो) तो द्वितीय
अशौचके साथ प्रथमको निवृत्त करना चाहिये --
ऐसा धर्मराजका कथन है। मरणाशौचके भीतर
* देवल-स्मृतिमें लिखा है कि ' चाण्डालकी अग्नि, अपयित्र अग्नि, सूतिका-गृहकी अग्नि, पतितंके परकौ अग्नि तष्य चिताकौ
अस्नि--इन्हें शिष्ट पुरुषो वहीं ग्रहण करता चाहिये ।' अतः लौकिक अग्नि लेते समय ठपर्युछ आग्नियोंकों त्याग दैन चहिये ।
" चाण्डालागिनिरपेध्याणषिः सूतिकागिविश्च कर्हिचित् । पतितागिनिशित्यग्वि त शिष्टग्रहणोचितोः ॥'