र अखर्वकेद संहिता भाव-९
२५७९. याः पार उपर्बन्त्यनुनिक्षन्ति पृष्ठीः ।
अर्हिसन्तीरनामया निर्द्रवन्तु बहिर्बिलम् ॥१५ ॥
जो अस्थिवा पाश्च ( पसलियों ) में जाती और पीठ भाग तक फैलती हैं, वे रोगरहित और मारक न बनती
हुई शारीरिक छिद्ठों ( रधो ) से द्रवीभूत होकर बाहर निकलें ॥६५ ॥
२५८०. यास्तिस्थ्वीरुपर्षन्यर्षणीर्वक्षणासु ते ।
अर्हिसन्तीरनामया निर्द्रवन्तु बहिर्बिलम् ॥१६ ॥
जो अस्थियाँ तिरछी जाती हुई आपकी पसलियों में प्रवेश करती हैं, वे भी रोगरहित और अमारक होकर
द्रवी भूत होकर बाहर निकल जाएँ ॥१६ ॥
२५८१. या गुदा अनुसर्पन््यानत्राणि मोहयन्ति च।
अर्हिसन्तीरनामया निर्द्रवन्तु बहि्बिलम् ॥९७ ॥
गुदा भाग तक फैली हुई जो अस्वियाँ आँतों को अवरुद्ध करती हैं, वे भी बिना कष्ट दिए रोगविहीन होकर
शारीरिक छिद्रो से बाहर निकल जाएँ ॥१७ ॥
२५८२. या मज्ज़ो निर्धयन्ति परूंषि विरुजन्ति च ।
अर्हिसन्तीरनापया निर्द्रवन्तु बहिर्बिलम् ॥१८ ॥
वे अस्थियाँ जो मज्जाभाग को रक्तहीन करतो है और जोड़ों पे वेदना पैदा करती है वे बिना कष्ट दिए रोगरहित
होकर शारीरिक रन्ध्र से बाहर निकले ॥१८ ॥
२५८३. ये अङ्गा मदयन्ति यक्ष्मासो रोपणास्तव ।
यक्ष्माणां सर्वेषां विषं निरवोचमहं त्वत् ॥९९ ॥
यक्ष्मारोग को दूर करने वाली और अंगों पर मांस को वृद्धि करने वाली जो ओषधियाँ आपके अंगों को
आनन्दित करती हैं, उनसे सभी यक्ष्मारोगों के विष-विकारों को हम आपसे दूर करते हैं ॥१९ ॥
२५८४. विसल्पस्य विद्रधस्य वातीकारस्य वालजेः ।
यक्ष्माणां सर्वेषां विषं निरवोचमहं त्वत् ॥२० ॥
विसल्प (पीड़ा) विद्रध (सूजन) , वातीकार (वातरोग) ओर अलजि इन सभी रोगों के विष को हम आपके
शरीर से, मन्व प्रयोग से दूर हटाते हैं ॥२० ॥
२५८५. पादाभ्यां ते जानुभ्यां श्रोणिभ्यां परि भंसस: ।
अनुकादर्षणीरुष्णिहाभ्यः शीर्ष्णो रोगमनीनशम् ॥२९ ॥
आपके पैरो; घुटनों, कूल्हो, कटि (गुप्तभाग) रीढ़, गर्दन की नाड़ियों और सिर से फैलने वाली आपकी पीड़ाओं
को हमारे द्वारा विनष्ट कर दिया गया है ॥२१ ॥
२५८६. सं ते शीर्ष्ण: कपालानि हदयस्य च यो विधुः ।
उद्दन्नादित्य रश्मिभि: शीर्ष्णो रोगमनीनशोङ्भेदमशीशमः ॥२२ ॥
आपके सिर पर उदय होते सूर्यदेव ने अपनी किरणों से रोग को विनष्ट किया और चन्द्रदेव आपके कपाल
भाग तथा हृदय के अंग भेद को शान्त कर देते है ॥२२ ॥