+ अध्याय ३८ *
स्थूल, सूक्ष्म और इससे भिन्न है, वह सब
भगवान् विष्णुसे प्रकट हुआ है। उन देवाधिदेव
सर्वव्यापक महात्मा विष्णुका मन्दिरमे स्थापन
करके मनुष्य पुनः संसारमें जन्म नहीं लेता (मुक्त
हो जाता है)। जिस प्रकार विष्णुका मन्दिर
बनवानेमें फल बताया गया है, उसी प्रकार अन्य
देवताओं -शिव, ब्रह्मा, सूर्य, गणेश, दुर्गा ओर
लक्ष्मी आदिका भी मन्दिर बनवानेसे होता है।
मन्दिर बनवानेसे अधिक पुण्य देवताकी प्रतिमा
बनवानेमें है। देव-प्रतिमाकी स्थापना-सम्बन्धी
जो यज्ञ होता है, उसके फलका तो अन्त ही नहीं
है। कच्ची मिट्टीकी प्रतिमासे लकड़ीकी प्रतिमा
उत्तम है, उससे ईंटकी, उससे भी पत्थरकी और
उससे भी अधिक सुवर्णं आदि धातुओंकी प्रतिमाका
फल दै । देवमन्दिरका प्रारम्भ करने मात्रसे सात
जन्मोके किये हुए पापका नाश हो जाता है तथा
बनवानेवाला मनुष्य स्वर्गलोकका अधिकारी होता
है; वह नरकमें नहीं जाता। इतना ही नहीं, वह
मनुष्य अपनी सौ पीढ़ीका उद्धार करके उसे
विष्णुलोकमें पहुँचा देता है। यमराजने अपने
दूतोंसे देवमन्दिर बनानेवालोंको लक्ष्य करके ऐसा
कहा था--॥ २९-३५॥
यम बोले--(देवालय और) देव-प्रतिमाका
निर्माण तथा उसकी पूजा आदि करनेवाले मनुष्योंको
तुमलोग नरके न ले आना तथा जो देव-मन्दिर
आदि नहीं बनवाते, उन्हें खास तौरपर पकड़
लाना। जाओ! तुमलोग संसारमें विचरों और
न्यायपूर्वक मेरी आज्ञाका पालन करो। संसारके
कोई भी प्राणी कभी तुम्हारी आज्ञा नहीं टाल
सकेंगे। केवल उन लोगोंको तुम छोड़ देना जो
कि जगत्पिता भगवान् अनन्तकी शरणमें जा चुके
हैं; क्योंकि उन लोगोंकी स्थिति यहाँ ( यमलोकर्मे)
नहीं होती। संसारमें जहाँ भी भगवान्में चित्त
लगाये हुए, भगवानूकी ही शरणमें पड़े हुए
भगवद्धक्त महात्मा सदा भगवान् विष्णुकी पूजा
करते हों, उन्हें दूरसे ही छोड़कर तुमलोग चले
जाना। जो स्थिर होते, सोते, चलते, उठते, गिरते,
पड़ते या खड़े होते समय भगवान् श्रीकृष्णका
नाम-कीर्तन करते हैं, उन्हें दूरसे ही त्याग देना।
जो नित्य-नैमित्तिक कर्मोंद्वारा भगवान् जनार्दनकी
पूजा करते हैं, उनकी ओर तुमलोग आँख उठाकर
देखना भी नहीं; क्योकि भगवान्का व्रत करनेवाले
लोग भगवान्को ही प्राप्त होते हैं*"॥ ३६-४१॥
जो लोग फूल, धूप, वस्त्र और अत्यन्त प्रिय
आधभूषणोंद्वारा भगवान्की पूजा करते हैं, उनका
स्पर्श न करना; क्योकि वे मनुष्य भगवान्
श्रीकृष्णके धामको पहुँच चुके हैं। जो भगवान्के
मन्दिरमे लेप करते या बुहारी लगाते हैं, उनके
पुत्नोंकों तथा उनके वंशको भी छोड़ देना।
जिन्होंने भगवान् विष्णुका मन्दिर बनवाया हो,
उनके वंशमें सौ पीढ़ीतकके मनुष्योंकी ओर
तुमलोग बुरे भावसे न देखना। जो लकड़ीका,
पत्थरका अथवा मिट्टीका ही देवालय भगवान्
विष्णुके लिये बनवाता है, वह समस्त पापोंसे
प्रतिमापूजादिकृतो नानेया नर्क नणः | देवालवाध्कर्तर आवेयास्ते विशेषतः ॥
विचरध्वं यथान्यायं नियोगो मम पाल्यताम्। नाज्ञाभड़ करिष्यन्ति भवतां जन्तवः क्रचित् ॥
केवलं ये
अगततातमननत समुपात्िता:। भवद्भिः परिहर्तव्यास्तेषां नात्रास्ति संस्थितिः ॥
चत्र भागवता लोके तच्ित्तास्तत्परायष्छः । पूजयन्ति सदा विष्णुं ते च त्याज्याः सुदूरतः ॥
यस्तिष्ठन् प्रस्वपन् गच्छभुचिष्ठन् स्खलिता: स्थिताः । संकीर्तयन्ति गोविन्द तै वस्त्याज्याः सुदूरतः ॥
नित्यैन॑भित्तिकैदेंवे. ये
यजन्ति जनार्दनम् । नावलोक्या भवद्धिस्ते तद्र यान्ति तदतिम् ॥
{अभ्निचु० ३८। ३६-- ४१)