ब्राह्मपर्वं ]
* भगवान् सूर्यका अभिषेक एवं उनकी रथयात्रा *
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भगवान् सूर्यका अभिषेक एवं उनकी रथयात्रा
रुड़ने पूछा--अ्रह्मन् ! भगवान् सूर्यकी रथयाश कय
और किस विधिसे की जाती है 2 रथयात्रा करनेवाले, रथकों
खींचनेवाले, रधकों वहन करनेवाले, रथके साथ जानेवाले
और रथके आगे नृत्य-गान करनेवाले एव रात्रि-जागरण
करनेवाले पुरुषोंको क्या फल प्राप्त होता है? इसे आप
ततरककल्याणके लिये विस्तारपूर्वक बताइये ।
ब्रह्माजी बोले--हे रद्र} आपने बहुत उत्तम प्रश्न
किया है। अब मै इसका वर्णन करता हूँ, आप इसे एकाग्र-
मनसे सुनें।
भगवान् सूर्यकी रथयात्रा और इन्द्रोत्सब--ये दोनों
जगत्के कल्याणके लिये मैंने प्रवर्तित किये हैं। जिस देशमें ये
दोनों महोत्सव आयोजित किये जाते हैं, वहाँ दुर्भिक्ष आदि
उपद्रव नहीं होते और न चोरी आदिका कोई भय ही रहता है।
इसलिये दुर्भिक्ष, अकाल आदि उपद्रयौकी दानन्तिके लिये इन
उत्सवॉक् मनाना चाहिये। मार्गजीषके शुक पक्षकी सप्तमीको
घृतके द्वारा भगवान् सूर्यको श्रद्धापूर्वक स्नान कराना चाहिये।
ऐसा करनेवाल्ला पुरुष सोनेके विमानमें बैठकर आग्रिल्लेकको
जाता है और वहाँ दिव्य भोग प्राप्त करता है। जो व्यक्ति
शर्कराके साध शालि-चावलका धात, भिष्टात्न और चित्रवर्णके
भातको भगवान् सूर्यको अर्पित करता है, यह ब्रह्मतमेकको
पराः होता है। जो प्रतिदिन भगवान् सूर्यको भक्तिपूर्वक घृतका
उकटन लगाता है, यह परम गतिको प्राप्त करता है।
पौष शुक्ल सप्तमीकों तीथेंकि जल अथवा पवित्र जलसे
वेदमन्त्रोंके द्वारा भगवान् सूर्यको नान कराना चाहिये। सूर्य-
भगवान्के अभिषेकके समय प्रयाग, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, नैधिष,
पृथूदक (पेहवा), शोण, गोकर्ण, क्रद्यावर्त, कुझाबर्त,
बिल्वक, नीखपर्वत, गड्गाद्वार, गङ्गासागर, कालप्रिय, मित्रवन,
भाष्टीरवने, चक्रतीर्थ, रामतीर्थ, गड़ा, यमुना, सरस्वती.
सिन्धू, चन्रभागा, नर्मदा, विपाका (व्यासनदी) , तापी, हिचा,
वेत्रवती (वेत्तका), गोदावरी, पयोष्णी (मन्दाकिनी) , कृष्णा,
वेण्या, शतद्रु (सतलज) , पुष्करिणी, किकी (केस) तथा
खरयू आदि सभी तीर्थो, नदियों और समुद्रोंका स्मरण करना
चाहिये! । दिव्य आश्रमो और देवस्थानोंका भी स्मरण
करना चाहिये । इस प्रकार स्नान कराकर तीन दिन, सात दिन,
एक पक्ष अथवा मासभर उस अभिषेकके स्थानम हो
भगवान्का अधिवास करे और प्रतिदिन भक्तिपूर्वक उनको
पूजा करता रहे ।
माघ मासके कृष्ण पक्षकी सप्तमीको मङ्गल कलदों तथा
वितान आदिसे सुशोभित चौकोर एवं पक्के इंटोंसे बनी वेदीपर
सूर्यनागयणको भत्ीभांति स्थापित कर हवन, ब्राह्मण-भोजन,
वेद-पाठ और विभिन्न प्रकारके नृत्य, गौत, वाद्य आदि
उत्सवोंको करना चाहिये। अनन्तर माघ शुक्ला चतुर्थीको
अयाचित व्रत करे, पञ्ममीको एक बार भोजन करे, षष्ठीको
शत्रिके सपय ही भोजन करे और सप्पीको उपवास कर हवन,
ब्राह्मण-भोजन आदि सम्पन्न करें। सबको दक्षिणा देकर
पौराणिककी भत्लीभाँति पूजा करे । तदनन्तर रलजटित सुवर्णके
रथम भगवान् सूर्यको विराजितं करे । ठस रथकों उस दिन
मन्दिरके आगे हो खड़ा करे । रत्रिम जागरण करे और
नृत्य-गोत चलता रहे । माप शुक्ला अष्टमीको रथयात्रा करनी
चाहिये । रथके आगे विविध वाजे बजते रहे, नृत्य-गीत और
मङ्गल वेदध्वनि होती रहे । रथयात्रा प्रथम नगरके उतर दिशासे
प्रारम्भ करनी चाहिये, पुनः क्रमशः पूर्व, दक्षिण ओर पश्चिम
दिज्ञाओँमें भ्रमण कराना चाहिये । इस प्रकार रथयात्रा करनेसे
राज्यके सभौ उपद्रव इन्त हो जाते हैं। राजाको युद्धमें
विजय मिलती है तथा उस राज्यम सभी प्रजाएँ और पशुगण
नीरोग एवं सुखी हो जाते हैं। रथयात्रा करनेवाले, रथकों
१- यजेद्धि तीर्थतामानि मनस संस्मरन् बृधः।प्रयागे पष्क देवे कुरुक्षेत्र थ तैमिपम्॥
पृथधूदके चद्रभागों कोण गोकर्मपेव च! ज्रह्मावतै कुदावत बिल्यके. योलपर्वतम् ॥
गक़़ादवर' तथा पुण्य गज़ासागरमेव च । कलप्रिद शत्रवे शष्डीरस्वामिने तथा ॥
चक्रतीर्थं तथा पुष्यं रामतीधौ तथा शिवम्।वितस्ता हर्षपन्था यै तधा यै देषिफा स्मृत ॥
गङ्गा सरस्वतो सिग्धुधनद्रभागा स्लर्मदा।विपाशा यमुन्द नापो दका येक्रवती तथी ॥
गोदावरौ प्ण च कृष्णा येस्या तथा नदी । दष्तसद्वा॒पुष्किलौ वौचिकी सरयुमधा ॥
चान्ये सागराश्चैव प्॑निध्यै कल्पवनु वै । तथाश्रमाः पुष्यता टिव्यान्यायतमनि च ॥
4 क्रद्धपर्थं ५५।२६-- ३५)