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मुक्त हो जाता है। प्रतिदिन यज्ञोंद्वारा भगवान्‌की | हजार वर्षोतक उस मन्दिरके बनवानेवालेकी

आराधना करनेवालेको जो महान्‌ फल मिलता है, | स्वर्गलोकमें स्थिति होती है। भगवान्‌की प्रतिमा

उसी फलको, जो विष्णुका मन्दिर बनवाता है, | बनानेवाला विष्णुलोकको प्राप्त होता है, उसकी

वह भी प्राप्त करता है। जो भगवान्‌ अच्युतका | स्थापना करनेवाला भगवान्मे लीन हो जाता है

मन्दिर बनवाता है, वह अपनी बीती हुई सौ| और देवालय बनवाकर उसमें प्रतिमाकी स्थापना

पीढ़ीके पितरोंकों तथा होनेवाले सौ पीढ़ीके | करनेवाला सदा भगवान्‌के लोकमें निवास पाता

वंशजोंको भगवान्‌ विष्णुके लोकको पहुँचा देता | है*॥४२--५० ॥

है। भगवान्‌ विष्णु सप्ततोकमय हैं। उनका मन्दिर | अग्निदेव बोले-- यमराजके इस प्रकार आज्ञा

जो बनवाता है, वह अपने कुलको तारता है, उन्हें | देनेपर यमके दूत भगवान्‌ विष्णुकी स्थापना आदि

अक्षय लोकोंकी प्राप्ति कराता है और स्वयं भी | करनेवालॉकों यमलोकमें नहीं ले जाते। देवताओंकी

अक्षय लोकोंको प्राप्त होता है। मन्दिरमे ईंटके | प्रतिष्ठा आदिकी विधिका भगवान्‌ हयग्रीवने

समूहका जोड़ जितने वर्षोतक रहता है, उतने ही | ब्रह्माजीसे वर्णन किया था॥५१॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'देवालय-तिर्माण माहात्प्यादिका वर्णन

अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३८॥

उन्तालीसवाँ अध्याय

विष्णु आदि देवताओंकी स्थापनाके लिये भूपरिग्रहका विधान

भगवान्‌ हयग्रीव कहते हैं--- ब्रह्मन्‌! अब मैं | वसिष्ठोक्त ज्ञानसागरतन्त्र, स्वायम्भुवतन्त्र, कापिलतन्त्र,

विष्णु आदि देवताओंकी प्रतिष्ठाके विषयमें कहूँगा, | तार्य (गारुड) -तन््र, नारायणीयतन्त्र, आत्रेयतन्त्र,

ध्यान देकर सुनिये। इस विषयमें मेरे द्वारा वर्णित | नारसिंहतन्त्र, आनन्दतन्त्र, आरुणतन्त्र, बौधायनतन्त्र,

पद्चरात्रों एवं सप्तरात्रॉंका ऋषियोंने मानवलोकमें | अष्टाङ्गतन्त्र ओर विश्चतन्त्र ॥ १--५॥

प्रचार किया है। वे संख्यामें पच्चीस हैं। (उनके | इन तन्‍्त्रोंके अनुसार मध्यदेश आदियमें उत्पन्न

नाम इस प्रकार हैं-) आदिहयशीर्षतन्त्र, | ट्विज देबधिग्रहोंकी प्रतिष्ठा करे। कच्छदेश,

अलोक्यमोहनतन्त्र, वैभवतन्त्र, पुष्करतन्त्र, प्रह्मादतन्त्र, | कावेरीतटवर्ता देश, कोंकण, कामरूप, कलिङ्ग,

गार्ग्यतन्त्र, गालवतन्त्र, नारदीयतन्त्र, श्रीप्रश्नतन्त्र, | काञ्ची तथा काश्मीर देशमें उत्पन्न ब्राह्मण देवप्रतिष्ठा

शाण्डिल्यतन्त्र, ईश्वरतन्त्र, सत्यतन्त्र, शौनकतन्त्र, | आदि न करे। आकाश, वायु तेज, जल एवं पृथ्वी --

भ्ये पृष्पधूपवासोभिरभूफणैक्ातिबल्ञभै: । अर्चयन्ति च तै ग्र्या नराः कृष्णालये गताः ॥

उपलेपनकर्तार: सम्मार्जनपराश्च ये । कृष्णालये परित्याज्यास्तेषां पु्रस्तथा कुलम्‌ ॥

येन॒ चायतनं चविष्णोः कारितं तरुत्कुलों>यम्‌ । पुंसां शत॑ नावलोक्य. भवद्धिदुष्टचेतसा 9

यस्तु देवालयं विष्णोदास्शैलमय॑ रथा । कारयन्मृन्मयं यापि सर्वपापैः प्रमुच्यते #

अहन्फनि यञ्ले यच्र्लम्‌ । प्रापनोति तत्फल॑विष्णोर्वः कारयति केतनम्‌ ॥

कुलानां

(अग्निषु ३८ । ४२--५० )

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