समयमें। “सर्वदा' ओर “सदा'-ये हमेशाके | तथा साम्प्रतम्--इन पदोंका प्रयोग “इस समय 'के
अर्थमें आते हैं। एतर्हि, सम्प्रति, इदानीम्, अधुना | अर्थमें होता है॥ १९--३८॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणयें कोशविष्यक “अव्ययवर्गका वर्णत” नामक
तीन सौ एकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २६१ #
[ 2.तत
तीन सौ बासठवाँ अध्याय
नानार्थ-वर्ग
अग्निदेव कहते हैं-'नाक' शब्द आकाश
और स्वर्गके अर्थमें तथा "लोक" शब्द संसार,
जन-समुदायके अर्थमें आता है। 'श्लोक' शब्द
अनुष्टुप् छन्द और सुयश अर्थमें तथा 'सायक'
शब्द बाण और तलवारके अर्थमें प्रयुक्त होता है।
आनक, पटह और भेरी-ये एक दूसरेके पर्याय
हैं। "कलङ्क ' शब्द चिह्न तथा अपवादका वाचक
है। 'क' शब्द यदि पुल्लिज्वमें हो तो वायु, ब्रह्मा
और सूर्यका तथा नपुंसकमें हो तो मस्तक और
जलका बोधक होता है। “पुलाक' शब्द कदन्न,
संक्षेप तथा भातके पिण्ड अर्थमें आता है।
"कौशिक" शब्द इन्द्र, गुग्गुल, उल्लू तथा साँप
पकड़नेवाले पुरुषोंके अर्थमें प्रयुक्त होता है। बंदरों
और कुत्तोंको 'शालाबृक' कहते हैं। मापके
साधनका नाम “मान' है। “सर्ग” शब्द स्वभाव,
त्याग, निश्चय, अध्ययन और सृष्टिके अर्थमें
उपलब्ध होता है। 'योग' शब्द कवचधारण, साम
आदि उपायोंके प्रयोग, ध्यान, संगति (संयोग)
और युक्ति अर्थका बोधक होता है। 'भोग' शब्द
सुख और स्त्री (वेश्या या दासी) आदिको
उपभोगके बदले दिये जानेवाले धनका वाचक
है। 'अब्ज' शब्द शङ्ख और चन्द्रमाके अर्थमें भी
आता है। “करट' शब्द हाथीके कपोल और
कौवेका वाचक है। 'शिपिविष्ट' शब्द बुरे चमड़ेवाले
(कोढ़ी) मनुष्यका बोध करानेवाला है। “रिष्ट'
शब्द क्षेम, अशुभ तथा अभावके अर्थमें आता है।
*अरिष्ट' शब्द शुभ और अशुभ दोनों अर्थोका
वाचक है । "व्युष्टि" शब्द प्रभातकाल और समृद्धिके
अर्थमें तथा "दृष्टि" शब्द ज्ञान, नेत्र और दर्शनके
अर्थमें आता है। “निष्ठा'का अर्थ है- निष्पत्ति
(सिद्धि), नाश और अन्त तथा *काष्ठा का उत्कर्ष,
स्थिति तथा दिशा अर्थमें प्रयोग होता है। “इडा!
और “इला' शब्द गौ तथा पृथ्वीके वाचक हैं।
"प्रगाढ" शब्द अत्यन्त एवं कठिनाईका बोध
करानेवाला है।“वाढम्' पद अत्यन्त और प्रतिज्ञाके
अर्थमें आता है। 'दृढ' शब्द समर्थ एवं स्थूलका
वाचक है तथा इसका तीनों लिङ्गो प्रयोग होता
है। 'व्यूढ' का अर्थ है--विन्यस्त (सिलसिलेवार
रखा हुआ या व्यूहके आकारमें खड़ा किया
हुआ) तथा संहत (संगठित)। “कृष्ण” शब्द
व्यास, अर्जुन तथा भगवान् विष्णुके अर्थमें आता
है। 'पण' शब्द जुआ आदिमे दाँवपर लगाये हुए
द्रव्य, कीमत और धनके अर्थमें भी प्रयुक्त होता
है। "गुण" शब्द धनुषकी प्रत्यञ्चाका, द्रव्योंका
आश्रय लेकर रहनेवाले रूप-रस आदि गुणोंका,
सत्त्व, रज और तमका, शुक्ल, नील आदि
वर्णोका तथा संधि-विग्रह आदि छः प्रकारकी
नीतियोंका बोध करानेवाला है। “ग्रामणी' शब्द
श्रेष्ठ (मुखिया) तथा गाँवके स्वामीका वाचक है।
“घृणा” शब्द जुगुप्सा ओर दया-दोनों अर्थोमें