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आता है। 'तृष्णा'का अर्थ है--इच्छा और प्यास।

*विपणि' शब्द बाजार या बनियेके दूकानके

अर्थम आता है। “तीक्ष्ण' शब्द नपुंसकलिङ्खमे

प्रयुक्त होनेपर विष, युद्ध तथा लोहेका वाचक

होता है और प्रखर या प्रचण्डके अर्थमें उसका

तीनों लिङ्गे प्रयोग होता है। "प्रमाण" शब्द

कारण, सीमा, शास्त्र, इयत्ता (निश्चित माप) तथा

प्रामाणिक पुरुषके अर्थमें आता है । ' करुण" शब्द

क्षेत्र और गात्रका तथा 'ईरिण' शब्द शून्य

(निर्जन) एवं ऊसरभूमिका वाचक है॥ १--१२॥

"यन्ता" पद हाथीवान और सारधिका वाचक

है। 'हेति' शब्दका प्रयोग आगकी ज्वालाके

अर्थमें होता है। ' श्रुत" शब्द शास्त्र एवं अवधारण

(निश्चय)-का तथा “कृत” शब्द सत्ययुग ओर

पर्याप्त अर्थका बोधक है। "प्रतीत ' शब्द विख्यात

तथा दृष्टके अर्थे ओर 'अभिजात' शब्द कुलीन

एवं विद्वान्‌के अर्थे आता दै । “ विविक्त" शब्द

पवित्र और एकान्तका तथा ' मूर्च्छित ' शब्द मूढ़

(संज्ञाशुन्य) और फैले हुए या उन्नतिको प्राप्त

हुएका बोध करानेवाला है | 'अर्थ' शब्द अभिधेय

(शब्दसे निकलनेवाले तात्पर्य), धन, वस्तु, प्रयोजन

और निवृत्तिका वाचक है। ^ तीर्थ" शब्द निदान

(उपाय), आगम (शास्त्र), महर्षियोंद्वारा सेवित

जल तथा गुरुके अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'ककुद्‌'

शब्द स्त्रीलिड्रके सिवा अन्य लिड्लोमें प्रयुक्त

होता है। यह प्रधानंता, राजचिह्न तथा बैलके

अड्भविशेषका बोध करानेवाला है । 'संविद्‌' शब्द

स्त्रीलिङ्ग है। इसका ज्ञान, सम्भाषण, क्रियाके

नियम, युद्ध और नाम अर्थमें प्रयोग होता है।

"उपनिषद्‌" शब्द धर्म और रहस्यके अर्थमें तथा

“शरद्‌' शब्द ऋतु और वर्षके अर्थे आता है।

“*पद' शब्द व्यवसाय (निश्चय), रक्षा, स्थान,

चिह्न, चरण और वस्तुका वाचक है। 'स्वादु'

शब्द प्रिय एवं मधुर अर्थका तथा "मृदु" शब्द

तीखेपनसे रहित एवं कोमल अर्थका बोध

करानेवाला है। "स्वाद्‌ और “मृदु'-दोनों शब्द

तीनों ही लिङ्गे प्रयुक्त होते हैं। 'सत्‌' शब्द

सत्य, साधु, विद्यमान, प्रशस्त तथा पूज्य अर्थमें

उपलब्ध होता है। 'विधि' शब्द विधान और

दैवका वाचक है। "प्रणिधि" शब्द याचना और

चर (दूत)-के अर्थे आता है। ' वधू" शब्द

जाया, पतोहू तथा स्त्रीका बोधक है । ' सुधा" शब्द

अमृत, चूना तथा शहदके अर्थे आता है । ' श्रद्धा"

शब्द आदर, विश्वास एवं आकाङ्क्षाके अर्थे

प्रयुक्त होता है । 'समुन्नद्ध शब्द अपनेको पण्डित

माननेवाले और घमंडीके अर्थम आता है । ' ब्रह्मबन्धु"

शब्दका प्रयोग ब्राह्मणकौ अवज्ञामें प्रयुक्तं होता

है । ' भानु" शब्द किरण और सूर्य-दोनों अर्थोमें

प्रयुक्त होता है। ' ग्रावन्‌" शब्दका अभिप्राय पहाड़

और पत्थर-दोनोंसे है। 'पृथग्जन' शब्द मूर्ख

और नीचके अर्थमें आता है। 'शिखरिन्‌' शब्दका

अर्थ वृक्ष और पर्वत तथा 'तनु' शब्दका अर्थ शरीर

और त्वचा (छाल) है । ' आत्मन्‌" शब्द यत्न, धृति,

बुद्धि, स्वभाव, ब्रह्म और शरीरके अर्थम भी

आता है । ' उत्थान" शब्द पुरुषार्थं और तन्त्रके तथा

“व्युत्थान' शब्द विरोधे खड़े होनेके अर्थका

बोधक है । ' निर्यात ' शब्द वैरका बदला लेने,

दान देने तथा धरोहर लौटानेके अर्थम भी आता

है । व्यसन ' शब्द विपत्ति, अधःपतन तथा काम-

क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंका बोध करानेवाला

है। शिकार, जुआ, दिनमें सोना, दूसरोंकी निन्दा

करना, स्त्रियोंमें आसक्त होना, मदिरा पीना,

नाचना, गाना, बाजा बजाना तथा व्यर्थ घूमना--

यह कामसे उत्पन्न होनेवाले दस दोषोंका समुदाय

है। चुगली, दुस्साहस, द्रोह, ईर्ष्या, दोषदर्शन,

अर्थदूषण, वाणीकी कठोरता तथा दण्डकी कठोरता--

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