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उसी प्रकार बहिर्मुख (विषयासक्त) मानव अपने

अन्तःकरणमें विराजमान श्रीविष्णुको नहीं देखते |

जैसे अप्रि भूमये, दर्पण मैलसे तथा गर्भ झिल्ललेसे

ढक्ता रहता है, उसी प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण इस दारीरके

भीतर छिपे हुए हैं । गिरिराजकुमारी ! जैसे दूधमें घी तथा

तिले तेल सदा मौजूद रहता है, वैसे ही इस चराचर

जगत्‌में भगवान्‌ विष्णु सर्वदा व्यापक देखे जाते हैं। जैसे

एक ही धागेमें बहुत-से सूतके मनके पिरो दिये जाते हैं,

इसी प्रकार ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण विश्वके प्राणी चिन्पय

श्रीविष्णुमें पिरोये हुए हैं। जिस प्रकार काठमें स्थित

अग्रिको मन्थनसे ही प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे ही

सर्वत्र व्यापक विष्णुका ध्यानसे ही साक्षात्कार होता है।

जैसे पृथ्वी जख्के संयोगसे नाना प्रकारके वक्षोंकों जन्म

देती है, उसी प्रकार आत्मा प्रकृतिके गुणोंके संयोगसे

नाना योनियॉमें जन्म ग्रहण करता है । हाथी या मच्छरमें,

देवता अथवा मनुष्यमें बह आत्मा न अधिक है न कम |

वह प्रत्येक दरीरमें स्थिर भावसे स्थित देखा गया है।

वह आत्मा ही सचिदानन्दस्वरूप, कल्याणमय एवं

महेश्वरके रूपमे उपलब्ध होता है। उस परमात्माको ही

किष्णु कहा गया है। यह सर्वगत श्रीहरि मैं ही हूँ। मैं

वेदान्तवेचच विभू, सर्वेश्वर, कालातीत और अनामय

परमात्मा हूँ। देवि ! जो इस प्रकार मुझे जानता है, वह

निस्सन्देह भक्त है।

वह एक ही परमात्मा नाना रूपो प्रतीत होता है

और नाना रूपॉमें प्रतीत होनेपर भी वास्तवर्मे वह एक ही

है--ऐसा जानना चाहिये। नाम-रूपके भेदसे हो उसको

इस पृथ्वीपर नाना रूपोमिं बतत्प्रया जाता है। जैसे

आकार प्रत्येक घटमें पृथक्‌-पृथक्‌ स्थित जान पड़ता है

किन्तु घड़ा फूट जानेपर वह एक अख्वण्डरूपमें ही

उपलब्ध होता है, उसी प्रकार प्रत्येक शरीरमें

पृथक्‌-पृथक्‌ आत्मा प्रतीत होता है परन्तु उस शरीररूप

उपाधिके भग्न होनेपर वह एकमात्र सुस्थिर सिद्ध होता

है। सूर्य जब बादलोंसे ढक जाते हैं, तब मूर्ख मनुष्य

उन्हें तेजोहीन मानने लगता है; उसी प्रकार जिनको बुद्धि

अज्ञानसे आवृत है, वे मूर्ख परमेश्वरकों नौ जानते।

* अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम्‌ «

(2.3

[ संक्षिप्त पद्चपुराण

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परमात्मा विकल्पसे रहित और निराकार है । उपनिषदों

उसके स्वरूपका वर्णन किया गया है । वह अपनी

इच्छसे निराकारसे साकाररूपमें प्रकट होता है। उस

परमात्मासे ही आकादा प्रकट हुआ, जो दाब्दरहित धा ।

उस आकाशसे वायुकी उत्पत्ति हुईं। तबसे आकादामें

शब्द होने लगा। वायुसे तेज और तेजसे जलका

प्रादुर्भाव हुआ। जलम विश्वरूपधारी विराट्‌ हिरण्यगर्भ

प्रकट हुआ। उसकी नाभिसे उत्पन्न हुए कमले

कोटि-कोटि ब्रह्माण्डॉकी सृष्टि हुई । प्रकृति और पुरुषसे

ही तीनों स्तरेकौकी उत्पत्ति हुई तथा उन्हीं दोनोंके संयोगसे

पाँचों तत्त्वॉका परस्पर योग हुआ। भगवान्‌ श्रीविष्णुका

आविर्भाव सत्त्वगुणसे युक्त माना जाता है। अखिनाशी

भगवान्‌ विष्णु इस संसारमें सदा व्यापकरूपसे

विराजमान रहते हैं। इस प्रकार सर्वगत विष्णु इसके

आदि, मध्य और अन्तम स्थित रहते हैं। करमपि ही

आस्था रखनेवाले अज्ञानीजन अविद्याके कारण

भगवानको नहीं जानते। जो नियत समयपर कर्तव्य-

बुद्धिसे वर्णोचित कर्मोका पालन करता है, उसका कर्म

विष्णुदेवताको अर्पित होकर गर्भवासका कारण नहीं

बनता | मुनिगण सदा हो वेदान्त-दाखूका विचार किया

करते हैं। यह ब्रह्मज्ञान ही है, जिसका मैं तुमसे वर्णन

कर रहा हूँ। शुभ और अशुभकी प्रवृत्तिमें मनको ही

कारण मानना चाहिये। मनके शुद्ध होनेपर सत्र कुछ

शुद्ध हो जाता है और तभी सनातन ब्रह्मका साक्षात्कार

होता है। मन हो सदा अपना चन्धु है ओर मन ही चातर

है। मनसे ही कितने तर गये और कितने गिर गये।

बाहरसे कर्मका आचरण करते हुए भी भीतरसे सबका

त्याग करे । इस प्रकार कर्म करके भी मनुष्य उससे लिप्त

नहीं होता, जैसे कमलका पत्ता पानीमें रहकर भी उससे

लेदामात्र भी लिप्त नहीं होता । जब भक्तिरसका ज्ञान हो

जाता है, उस समय मुक्ति अच्छी नहीं लगती । भक्तिसे

भगवान्‌ विष्णुको प्राप्ति होती है। ये सदाके लिये सुलभ

हो जाते हैं। वेदात्त-विचारसे तो केवल ज्ञान प्राप्त होता

है और ज्ञानसे जेय ।

सम्पूर्ण बस्तुओऑमें भाव-शुद्धिकी ही प्रशंसा की

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