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कम्पय जल्पय जल्पय सर्पदष्टमुत्थापयोत्थापय

लल लल बन्धं बन्ध मोचय मोचय वररुद्र गच्छ

गच्छ वध वध त्रुट त्रुट वुक वुक भीषय भीषय

मुष्टिना विषं संहर संहर ठ ठ।'-इस ' पक्षिरुद्र-

मन्त्र'से सर्पदष्ट मनुष्यको अभिमन्त्रित करनेपर उसके

विषका नाश हो जाता है। ॐ नमो भगवते रुद्र

नाशय विषं स्थावरजङ्गमं कृत्रिमाकृत्रिमं विषमुपविषं

नाशय नानाविषं दष्टकविषं नाशय धम धम दम

दम वम वम मेघान्धकारधारावर्षकर्षं निर्विषीभव

संहर संहर गच्छ गच्छ आवेशय आवेशय

विषोत्थापनरूपं मन्त्राद्‌ विषधारणम्‌ ' ॐ क्षिप ॐ

क्षिप स्वाहा ' ॐ हां हीं खीं सः ठं ड्रॉ हीं ठः।'-

यह मन्त्र जप आदिके द्वारा सिद्ध होनेपर सदैव

सर्पोंको बाँध लेता है।

" गोपीजनवल्लभाय स्वाहा '--यह मन्त्र सम्पूर्ण

अभीष्ट अर्थोको सिद्ध करनेवाला है। इसमें

आदिके एक, दो, तीन और चौथा अक्षर बीजके

रूपमें होगा। इससे हृदय, सिर, शिखा और

कवचका न्यास होगा। फिर 'कृष्णचक्राय अस्त्राय

फद' बोलनेसे पञ्चाङ्गन्यासकी क्रिया पूरी होगी।

" ॐ नमो भगवते रुद्राय प्रेताधिपतये हुलु हुलु

गज गजं नागान्‌ भ्रामय भ्रामय मुञ्च मुञ्च मोहय

मोहय कटर कट आविश आविश सुवर्णपतङ्ग

रुद्रो ज्ञापयति स्वाहा ॥ १--५॥

यह " पातालक्षोभ-मन्त्र' है। इसके द्वारा

रोगीकों अभिमन्त्रित करनेसे यह उसके लिये

विषनाशक होता है। दंशक सर्पके डैस लेनेपर

जलते काष्ट, तप्त शिला, आगकी ज्वाला अथवा

गरम कोकनद (कमल) आदिके द्वारा दंश-

स्थानको जला दे-सेंक दे; इससे विषका

उपशमन होता है। शिरीषवृक्षके बीज और

पुष्प, आकके दूध ओर बीज एवं सोंठ, मिर्च

तथा पीपल--ये पान, लेपन ओर अञ्जन आदिके

द्वारा विषका नाश करते हैं। शिरीष-पुष्पके

रससे भावित सफेद मिर्च पान, नस्य और

अञ्जन आदिके द्वारा विषका उपसंहार करती

है, इसमें संशय नहीं है। कड़वी तोरई, वच,

हींग तथा शिरीष और आकका दूध, त्रिकटु

और मेषाम्भ--इनका नस्य आदिक रूपमे प्रयोग

होनेपर ये विषका हरण करते है। अड्जोल

और कड्वी तुम्बीके सर्व्गिके चूर्णसे नस्य लेनेसे

विषका अपहरण होता है। इन्द्रायण, चित्रक,

द्रोण (गुमा), तुलसी, धतूरा और सहा--इनके

रसे त्रिकटुके वचर्णको भिगोकर खानेसे विषका

नाश होता है। कृष्णपक्षकी पञ्चमीको लाया हुआ

शिरीषका पञ्चाङ्गं विषहारी है ॥ ६--१२॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें “वियहारी मन्तौषधका कथन” मामक

दो सौ सत्तनबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥# २९७॥

दो सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय

गोनसादि-चिकित्सा

अग्निदेव कहते है - वसिष्ठ! अब मैं तुम्हारे | अक्लोल, त्रिफला, कूट, वच और त्रिकटु-इनका

सम्मुख गोनस आदि जातिके सर्पोकि विषकी | सर्पविषमें पान करे । सर्पविषमें सुहीदुग्ध, गोदुग्ध,

चिकित्साका वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर सुनो । | गोदधि और गोमूत्रे पकाया हुआ गोघृत पान

"ॐ हं ह्रीं अमलपक्षि स्वाहा ' इस मन्त्रसे | करना चाहिये । राजिलजातीय सर्पके डस लेनेपर

अभिमन्त्रित ताम्बूलके प्रयोगसे मन्त्वेत्ता मण्डली | सैन्धवलवण, पीपल, घृत, मधु, गोमयरस और

(गोनसः) सर्पके विषका हरण करता है । लहसुन, | साहीकी आँतका भक्षण करना चाहिये । सर्पदष्ट

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