घं० ५ सृ० ५९ ७५५
४१५७. अरा इवेदचरपा अहेव प्रप्र जायन्ते अकवा पटोभिः।
पृश्नेः पुत्रा उपमासो रभिष्ठाः स्वया मत्या मरूतः सं मिमिक्षुः ॥५ ॥
पहिवे के आरो के सदृश सभी मरुद्गण एक समान दीखते है । ये अवर्णनीय मरुद्गण दिवस के सदृश
अति हान् तेजो से संयुक्त होकर एक समानं प्रकट होते है । भृमि-पुत्र ये परुद्गण सपान मास में जन्ये हैं ।
अतिशय वेगवान् ये मरूद्गण सम्मिलित होकर स्वयं प्रवृत्त होकर वृष्टि आदि कार्यों का सप्पादन करते हैं ॥५ ॥
४१५८. यद्मायासिष्ट पृषतीभिरश्चैवीरुपविभिर्मरुतो रथेभिः ।
क्षोदन्त आपो रिणते वनान्यवोलियो वृषभः क्रन्दतु द्यौः ॥६ ॥
हे मरुतो ! जब बिन्दुदार अशचौ और सुदृढ़ चक्रो से योजित रथो दरार आप आगमन करते हैं, तब जलराशि
क्षुब्ध होकर बरसने लगती है । वनों का नाश होता है और सूर्य रश्मि संयुक्त वर्षणकारी मेधो से आकाश भी भषण
शब्द से गुंजायपान होता है ॥६ ॥
४१५९. प्रथिष्ट यामन्यृथिवी चिदेषां भर्तेव गर्भ स्वपिच्छवो धुः ।
वातान्हश्वान्धु्यायुयुत्े वर्ष स्वेदं चक्रिरे रुद्रियासः ॥७ ॥
मरुदुगर्णो के आगमन से पृध्वी उर्वरता को प्राप्त होती है । पति द्वारा गर्भ को स्थापना करने के समान ये
मरुद्गण अपने बल से वृष्टि जल को भूमि में प्रस्थापित करते हैं । ये रुद्रपुत्र मरुद्गण अपने द्रुतगामी अश्रों को
रथ के अग्रभाग में नियोजित कर पराक्रमपूर्वक वृष्टि कार्य सम्पादित करते हैं ॥७ ॥
४१६०. हये नरो मरुतो मृत्ठता नस्तुवीमघासो अपृता ऋतज्ञाः ।
सत्यश्रुतः कवयो युवानो बृहद् गिरयो बृहदुक्षमाणाः ॥८ ॥
हे मरूतो ! हमे सुख से परिपूर्ण करें । आप नेतृत्वकर्ता, प्रभूत धन- सम्पन्न, अविनाशी, सत्य ज्ञाता, सत्यवशा,
क्रान्तदर्शी, युवा, प्रचण्ड-वलवान् और सर्वत्र स्तुति किये जाने योग्य हैं ॥८ ॥
[ सूक्त - ५९ ]
[ ऋषि - श्यावाश्च आत्रेय । देवता - मरुद्गण । छन्द् - जगती ; ८ ब्रिषटप् । ]
४१६१. प्र वः स्पठक्रन्त्सुविताय दावनेऽर्चा दिवे प्र पृथिव्या ऋतं भरे ।
उक्षन्ते अश्वान्तरुषन्त आ रजोऽनु स्वं भानुं श्रथयन्ते अर्णवः ॥१ ॥
हे मरुतो ! अपने कल्याण के लिए हविदाता यजमा यजन कर्म प्रारम्भ कर रहा है । हे याजक !
आप प्रकाशक द्यलोक की पूजा करें । हम पृथ्वो माता के लिए स्तोत्रों का गान करते हे । ये मरुद्गण अपने
अश्वौ को प्रेरित करते हैं और अन्तरीक्ष में दूर तक गमन करते है । वे अपने तेज से मेप्रों को विद्युत को
विस्तारित करते है ॥१ ॥
४१६२. अमादेषां भियसा भूमिरेजति नौर्न पूर्णा क्षरति व्यथिर्यती ।
दूरेदृशो ये चितयन्त एमधिरन्तर्महे विदथे येतिरे नरः ॥२ ॥
जैसे मनुष्यों से पूर्ण नौका नदी के मध्य कम्पित होकर गमन करती है, वैसे इन मरुद्गण के बल से भयभीत
पृथ्वी प्रकप्पित हो उठती है । वे मरुद्गण दूर से दृश्यमान होने पर भी अपनी गतियो से जाने जाते हैं । ये नेतृत्वकर्त्ता
मरुद्गण अन्तरिक्ष के मध्य अधिक ह॒व्यादि ग्रहण करने के लिए यल करते हैं ॥२ ॥