मनुष्यको पीपल, शर्करा, दुग्ध, घृत ओर मधुका
पान करना चाहिये | त्रिकटु, मयूरपिच्छ, विडालकी
अस्थि और नेवलेका रोम--इन सबको समान
भाग लेकर चूर्ण बना ले। फिर भेड़के दध्मे
भिगोकर उसकी धूप देनेसे सभौ प्रकारके विर्षोका
विनाश होता है । पाठा, निर्गुण्डी ओर अङ्कोलके
पत्रको समान भागमें लेकर तथा सबके समान
लहसुन लेकर बनाया हुआ धूप भी विषनाशक
है। अगस्त्यके पत्तोंको काँजीमें पकाकर उसकी
भापसे डसे हुए स्थानको सेका जाय, इससे विष
उतर जाता है॥ १--७॥
मूषक सोलह प्रकारके कहे गये हैं। कपासका
रस तेलके साथ पान करनेसे 'मूषक-विष 'का नाश
होता है। फलिनी (फलिहारी)-के फूलोंका सोंठ
और गुड़के साथ भक्षण करना चाहिये। यह
विषरोगनाशक है। लूताएँ (मकड़ी) बीस प्रकारकी
कही गयी हैं। इनके विषकी सावधानीसे चिकित्सा
करनी चाहिये। पद्म, पद्माक, काष्ट, पाटला, कूट,
तगर, नेत्रबाला, खस, चन्दन, निर्गुण्डी, सारिवा
ओर शेलु (लिसोडा)- ये लूता-विषहारीगण है ।
गुञ्ञा, निर्गुण्डी ओर अङ्कोलके पत्र, सोंठ, हल्दी,
दारुहल्दी, करज्जकी छाल -इनको पकाकर
* लूताविष से पीडित मनुष्यका पूर्वोक्त ओषधिर्योसे
युक्त जलके द्वारा सेचन करे ॥ ८--१३॥
अब 'वृश्चिक-विष'का अपहरण करनेवाली
ओषधियोंको सुनो। मञ्जिष्ठा, चन्दन, त्रिकटु तथा
शिरीष, कुमुदके पुष्य --इन चारों योगोंको एकत्रित
करना चाहिये। ये योग लेप आदि करनेपर
वृश्चिक-विषका विनाश करते हैं।
"ॐ नमो भगवते रुद्राय चिवि चिवि च्छिन्द
च्छिन्द किरि किरि भिन्द भिन्द खद्धेत च्छेदय
च्छेदय शूलेन भेदय भेदय चक्रेण दारय दारय ॐ
हूं फद।
इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित अगद (औषध)
विषार्त मनुष्यको दे। यह गर्दभ आदिके विषका
विनाश करता है। त्रिफला, खस, नागरमोथा
नेत्रबाला, जटामांसी, पदमक ओर चन्दन -इनको
बकरीके दूधके साथ पिलानेपर गर्दभ आदिके
विषोंका नाश होता है। शिरीषका पञ्चाङ्ग और
त्रिकटु गोजरके विषका हरण करता है । सुही-
दुग्धके साध सिरसकौ छाल “उन्दूरज दर्दर"
(मेढक) -के विषका शमन करती है । त्रिकटु ओर
तगरमूल धृतके साथ प्रयुक्त होनेपर " मत्स्यविष 'का
नाश करते हैं। यवक्षार, त्रिकटु, वच, हींग,
बायबिडंग, सैन्धवलवण, तगर, पाठा, अतिबला
और कूट-ये सभी प्रकारके " कीट-विषों 'का
विनाश करते हैं। मुलहठी, त्रिकट, गुड और
दुग्धका--इनका योग “पागल कुत्ते *के विषका
हरण करता दै ॥ १४--१७॥
"ॐ सुभद्रायै नमः, ॐ सुप्रभायै नमः '-- यह
ओषधि उखाड़नेका मन्त्र है । भगवान् ब्रह्मने
सुप्रभादेवीको आदेश दे रखा है कि मानवगण जो
ओषधियाँ बिना विधि-विधानके ग्रहण करते हैं,
तुम उन ओषधियोंका प्रभाव ग्रहण करो । इसलिये
पहले सुप्रभादेवीको नमस्कार करके ओषधिके
चारों ओर मुद्रीसे जौ बिखेस्कर पूर्वोक्त मन्त्रका
दस बार जप करके ओषधिको नमस्कार करे
और कहे--“तुम ऊर्ध्वनेत्रा हो; मैं तुम्हें उखाड़ता
हूँ।' इस विधिसे ओषधिको उखाड़े और निम्नाङ्कित
मन्त्रसे उसका भक्षण करे-
जमः पुरुषसिंहाय नमों गोपालकाय च।
आत्मनैवाभिजानाति रणे कृष्णः पराजयम्।
अनेन सत्यवाक्येन अगदो मेऽस्तु सिद्धयतु ॥
*पुरुषसिंह भगवान् गोपालको बारंबार नमस्कार
है। युद्धम अपनी पराजयकी बात श्रीकृष्ण ही
जानते हैं--इस सत्य वाक्यके प्रभावसे यह अगद
मुझे सिद्धिप्रद हो ।'
स्थावर विषकी ओषधि आदिमे निम्नलिखित