मन्त्रका प्रयोग करना चाहिये--
स्वाहा हरिमाये।'
विषका भक्षण कर लेनेपर पहले वमन
"ॐ नमो बैदूय॑मात्रे तत्र रक्ष रक्ष मां | कराके विषयुक्त मनुष्यका शीतल जलसे सेचन
सर्वविषेभ्यो गौरि गान्धारि च्यण्डालि मातड्लिनि | करे। तदनन्तर उसको मधु ओर घृत पिलाये
और उसके बाद विरेचन कराये ॥ १८--२४॥
इस ग्रकार आदि प्रेय महापुराणे “ गोनतादि- चिकित्सा- कथन ” नामक
दो सौ अद्ञानवेवाँ अध्याय पूर हेग ॥ २९८ #
दो सौ निन्यानबेवाँं अध्याय
बालादिग्रहहर बालतन्त्र
अग्निदेव कहते है - वसिष्ठ ! अब मैं बालादि
ग्रहोंको शान्त करनेवाले 'बालतन्त्र को कहता हूँ।
शिशुको जन्मके दिन ' पापिनी ' नामवाली ग्रही
ग्रहण कर लेती है। उससे आक्रान्त बालकके
शरीरे उद्वेग बना रहता है । वह माँका दूध पीना
छोड़ देता है, लार टपकाता है और बारंबार
ग्रौवाको घुमाता है । यह सारी चेष्टा पापिनी ग्रहीके
कारणसे ही होती है। इसके निवारणके लिये
पापिनी ग्रही और मातृकाओंके उदेश्यसे उनके
योग्य विविध भक्ष्य पदार्थ, गन्ध, माल्य, धूप एवं
दीपकी बलि प्रदान करे। पापिनीद्रारा गृहीत
शिशुके शरीरम धातकी, लोध, मजीठ, तालीसपत्र
और चन्दनसे लेप करे और गुग्गुलसे धूप दे।
जन्मके दूसरे दिन ' भीषणी ' ग्रही शिशुको आक्रान्त
करती है । उससे आक्रान्त शिशुकी ये चेष्टाएँ होती
हैं--वह खाँसी और श्वाससे पीडित रहता है तथा
अङ्गोको बारंबार सिकोड़ता है । ऐसे बालकको
बकरीके मूत्र, अपामार्ग ओर चन्दनके साथ धिसी
हुई पिष्पलीका सेवन कराना -अनुलेप लगाना
चाहिये । गोशंग, गोदन्त तथा केशोंकी धूप दे एवं
पूर्ववत् बलि प्रदान करे। तीसरे दिन “घण्टाली'
नामकी ग्रही बच्चेको ग्रहण करती है। उसके द्वारा
गृहीत शिशुकी निम्नलिखित चेष्टाएँ होती है । वह
बारंबार रुदन करता है, जँंभाइयाँ लेता है,
कोलाहल करता है एवं त्रास, गात्रोद्नेग और
अरुचिसे युक्त होता है -एेसे शिशुको केसर,
रसाञ्जन, गोदन्त और हस्तिदन्तको बकरीके
दूधमें पीसकर लेप लगाये! नख, राई और
बिल्वपत्रसे धूप दे तथा पूर्वोक्त बलि अर्पित करे।
चौथी ग्रही ' काकोली" कही गयी है । इससे गृहीत
बालकके शरीरे उद्वेग होता है। वह जोर-जोरसे
रोता है। मुँहसे गाज निकालता है और चारों
दिशाओंमें बारंबार देखता है । इसकी शान्तिके
लिये मदिरा ओर कुल्माष (चना या उड़द)-की
बलि दे तथा बालकके गजदन्त, साँपकी केंचुल
और अश्रमूत्रका प्रलेप करे। तदनन्तर राई, नीमकी
पत्ती और भेड़ियेके केशसे धूप दे। ' हंसाधिका'
पाँचवीं ग्रही है। इससे गृहीत शिशु जंभाई लेता,
ऊपरकी ओर जोरसे साँस खींचता और मुदरी
बाँधता है। ऐसी ही अन्य चेष्टाएँ भी करता है।
“हंसाधिका 'को पूर्वोक्त बलि दे। इससे गृहीत
शिशुके शरीरम काकड़ासिंगी, बला, लोध, मैनसिल
और तालीसपत्रका अनुलेपन करे। फट्कारी”
छठी ग्रही मानी गयी है। इससे आक्रान्त बालक
भयसे चिहुँकता, मोहसे अचेत होता और बहुत
रोता है, आहारका त्याग कर देता है और अपने
अङ्गौको बहुत हिलाता-डुलाता है । ' फट्कारी 'के
उद्देश्यसे भी पूर्वोक्त बलि प्रदान करे । इससे गृहीत
शिशुका रई, गुग्गुल, कूट, गजदन्त ओर घृतसे
धूपन और अनुलेपन करे। ' मुक्तकेशी" नामकी