Home
← पिछला
अगला →

अक 4

लिये संधि कर लेनी चाहिये । १. कपाल, २. | १३. परिक्रय, १४. उच्छिन, १५. परदूषण तथा

उपहार, ३. संतान, ४. संगत, ५. उपन्यास, | १६. स्कन्धोपनेय- ये संधिके सोलह भेद बतलाये

६. प्रतीकार, ७. संयोग, ८. पुरुषान्तर, ९. अच््टनर, | गये हैं।* जिसके साथ संधि की जाती है, वह

१०. आदिष्ट, ११. आत्मामिष, १२. उपग्रह, । ' संधेय ' कहलाता है ! उसके दो भेद है- अभियोक्ता

* इम सोलह संधि्योका परिचय इस प्रकार है --

३, स्मात शक्ति तथा साधनवाले दो राजाओँमें जो बित्रा किसी ककि संधि कौ जाती है, उसे 'समसंधि' या “कपालसंधि' कहते

हैं। 'कपालसंधि' उसका काम इसलिये हुआ कि चह दो कपालोको जोड़नेके समान है। दो कपालेकि योगसे षडा बनता है। यदि एफ

कपाल फूट जाय और उसके स्थानपर दूसरा कपाल जोदा जाय तो यह याहरसे जुड़ा हुआ दौखनेपर भौ भीतरसे पूरा-पूरा नहीं जुद़ता।

इसी तरह जो संधि समात्र शक्तिशाली पुरुषोंमें स्थापित होती है, यह कुछ कालके लिये का्मचलाऊ हौ होती है। इृदयका मेल न होनेके

कारण वह टिक नहीं पाती।

२. संधेयकी इच्छाके अनुस्वर पहले हौ द्रव्य आदिका उपहार देनेके आद जो उसके साथ संधि कौ जाती है, यह उपहार-संधि

कहौ गयी है।

३. कन्यादान देकर जो संधि की जातौ है, वह संतानहेतुक होनेके कारण संतानसंधि कहलातो है।

४. चौथी संगतसंधि कही गयी है, जो सत्पुरुषोंके साथ मैत्रौपूर्वक स्थापित होती है। इसमें देने-लेनेकी कोई शर्तं नहीं होती।

उसमें दोनों पक्षोके अर्थ (कोष) और प्रयोजन (कार्य) समान होते हैं। परस्पर अत्यन्त विश्वासके साथ दोनोंके हृदय एक हो जाते

हैं। उस दशामें दोनों अपना खजाना एक-दूसरेके लिये खोल देते हैं और दोनों एक-दूसरेके प्रयोजनको सिद्धिके लिये समानकूपसे

प्रथन्नशौल होते हैं। यह संधि जौयनपर्वन्त सुस्थिर रहतो है। सब संधिर्योमिं इसीका स्थान ऊँचा है। जैसे टूटे हुए सुवर्णके टुकड़ोंकों गलाकर

जोड़ा जाय तो वे पूर्णरूपले जुड़ जाते हैं, उल्ली तरह संगतसंधिमें दोनों पक्षॉकौं संगति अटूट हो जालो है। इसलिये इसे सुबर्णसंधि या

ऋाशनसंधि भी कहते हैं। यह सम्पत्ति और विपत्तिये भौ, कैसे हौ कारण क्यो न हों, उनके द्वारा अभेद्य रहतो है।

५. भविष्ये कल्याण करनेबालों एकार्पसिद्धिके उद्देश्ससे जो संधि की जाय, अर्थात्‌ अमुक शत्रु हम दोनोंकों हानि पहुँचानेषाला

है, अतः हम दोनों पिलकर उसका उच्छेद करें, इससे हम दोनोंकों समानरूपसे लाभ होगा--ऐसा उपन्यास (उल्लेख) करके जो संधि

की जाय, उसे उपन्यास कहा गया है।

६. मैंने पहले इसका उपकार किया है, संकटकालमें इसे सहायता दी है, अब यह ऐसे ही अवसरपर मेरी भी सहायता करके

इस उपकारका बदला चुकायेगा--इस उद्देश्वप्ते जो संधि की जाती है, अधवा वै इसका उपकार करता हूँ, यह भेरा भी उपकार करेगा--

इस अधभिप्रायसे जो संधि स्थापित की जाती है, उसका वाय प्रतीकारसं॑धि है--जैसे औराम और सुप्रीवकी संधि।

७. एकपर ही चढ़ाई करेके लिये जब शत्रु और विजिगीयु दोनों जाते है, उस समय यात्राकालमें जो ठन दोनों संगठत या

सॉठ-गाँठ हो जाती है, ऐसी संधिको संयोग कहते हैं।

८. जहाँ दो राजाओंमें एक वततमस्तक हो जाता है और दूसरा यह शते रखता है कि मेरे और तुम्हारे दोनो सेत्रपति मिलकर

मेरा अमुक कार्य सिद्ध करें, तो उस शर्तपर होनेवाली संधि पुरुषात्तर कही जती है।

९. अकेले तुम मेरा अमुक कार्प सिद्ध करो, उसमें ध अधवा मेरी सेनाका कोई योद्धा साथ नहीं रहेगा--जहाँ शत्रु ऐसी शर्त

सामने रखे, वहाँ डस जर्तपर कौ जानेवाली संधि ' अष्ट -पुरुष ' कही जाती है। उसमें एक पक्षका कोई भी पुरुष देखनेमें नहीं आता,

अतएव उसका जाम अध्टपुरुष है।

१०. जहाँ पमी भूमिका एक भाग देकर जेषकी रक्षाके लिये बलवान्‌ शत्रुके साथ संधि की जाती है, उत्ते आदिष्ट कहा गया है।

११. जहाँ अपनी सेका देकर संधि की जाती है, वहाँ अपने-आपको हौ आमिष (भोग्य) अना देतेके कारण उस संधिका गाम

आत्पामिष है।

१२. जहाँ प्राणरक्षाके लिये सर्वस्य अर्पण कर दिया जाता है, वह संधि उपग्रह कारौ गयी है।

१३, जहाँ कोषका एक भाग, कुप्य (वस्त्र, कम्बल आदि) अथवा सारा हौ खजाना देकर शेष प्रकृति (अमात्य, राष्ट्र आदि)-

कौ रक्षा कौ जाती है, वहाँ मागो उस धतसे ठत शेष प्रकृतियोका क्रय किया जाता है; अतएव उस संधिको परिक्रय कहते हैं।

१४. जहाँ सारभूत भूमि (कोच आदिकी अधिक वृद्धि करानेवाले भूभाग)-को देकर संधि कौ जाती है, यह अपना उच्छेद करवेके

समान होतेले उच्छिन्त कहलाती है ।

१५. अपनी सम्पूर्ण भूमिले जो भी फल या लाभ प्रप्त होता है, उसको कुछ अधिक म्लिाकर दैनेके आद जो संधि होती है,

वह परदूषण कहो गयौ है।

` ३६ जहौ परिगणित फल (लाभ) खण्ड- खण्ड करके अर्पात्‌ कई किस्तोंमें घटकर पहुँचाये जाते हैं, वैसो संधि स्कन्धोपनेय कही

गयौ है।

← पिछला
अगला →