परिज्ि्ट-२ १९
बृहतो देवानाम् अधिपतिः (अयव ६,५३.१ सा० भा०) अर्थात् बृहस्पति बड़े-बड़े देवों के अधिपति हैं । उन्हें अष्ट वसुओं के साथ
आमंत्रित किया गया है. एह यानु वरुणः सोमो अभ्निरईृहस्पतिसुभिरेह यातु (अथर्व० ६७३.१) वे राजा के 7 न्य को स्थिर बनाते
हैं- रुवं ते राजा वरुणो शरव देवो वृहस्पतिः (अथर्व ६८८.२)। वे सविता अर्वमा और मित्र आदि देवताओं की तरह शत्रु से
यजमान कौ रक्षा करते है । वैवाहिक कृत्यो में भी बृहस्पति संरक्षण व सहयोग प्रदान करते है । वस्तुतः वृहस्पति एक कल्याणकारी
देवता रै, जो वन्ध्या को गर्भधारण कराने से लेकर किस विपति में मणि बन्धन करने तक के सभी कर्मों में सहायता प्रदान करते
हैं- गर्भ ते पित्रा वरुणों गर्भ देवो बृहस्पति: दधातु ते (अथर्व० ५२५४)... आ त्वा चृतत्वयमा पृषा वृहस्पतिः (अवर्व०
५.२८ १२)। घुलोक गो मोचन,बल हनन, अन्धकार निराकरण आदि इनके प्रमुख शौर्य कृत्यो में गिने जाते हैं। इनका सम्बन्ध
मरुद्गर्णों इन्र, वरुण और पूषा के साथ विवेचित है ।
८४. बृहस्पति युक्त अवस्वान् (३.२६.६) - द्र०-अप्सरा।
८५. ब्रध्न (७.२३) - द्र०- सूर्य ।
८६. ब्रह्म (५.६.१) ~ अथर्ववेदीय देवताओं में ब्रह्म का देवत्व भी दृष्टिगोचर रोता है। ब्रह्म शब्द कौ व्याख्या करते हुए
निरुक्तकार यास्क ने लिखा है- “बह्म परिवृवं सर्वत:(नि० १८) अर्थात् जो सर्वत्र व्याप्त है,वह ब्रह्म है। सम्पूर्ण जगत् ब्रह्म से हो
जन्मा है और उसी में लय हो जाता है, इसीलिए इस सम्पूर्ण जगद् में जो कुछ है,वह निश्चित हो ब्रह्म है । इस तथ्य कौ पुष्टि करते
हुए छान््दोग्य उपनिषद्कार ने लिखा है- सर्व खत्वं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत (छांदो २.१४)! ब्रह्म के एक स्वरूप
को 'विशरूप' भी करते हैं, क्योंकि वह सर्वत्र व्याप्त रहता है; किन्तु अथर्ववेद में "विश्वरूप" एक राजा के विशेषण स्वरूप भौ
अयुक्त हुआ है,जिसका प्रधान कारण राजा का ,शत्रु मित्र, कलत्र आदि रूपों में विद्यमान होना है । जैसा कि कहा गया है -.ताहद्
नापांकितों राजा विश्वरूफ जतु फिप्रकलब्राटिषु नानावियरू& { अधर्व ४८ 3 सा० भा०) अथर्ववेद में भी ब्रह्म को सर्व प्रथमोद् भूत
विवेचित किया गया है- ब्रह्म जज्ञानं प्रधमं पुरस्ताद् (अथर्व ५.६.१)। विराट् विश्व बह्माण्ड में संचरित स्रमष्टिगत चेतना को
ब्रह्म कहते हैं और वहो चेतना जब व्यष्टिगत होकर प्राणियों के हृदयक्षेत्र में संचरित होती दै, तब ठसे आत्मा कहते हैं । इसो तथ्य
को प्रतिपादित करते हुए अधर्ववेद के ऋषि ने बद्मात्मा का स्वरूप इन शब्दों में स्पष्ट किया है- वेनस्तत् पश्यत् परं गुहा यद् यत्र
विश्वै भवत्येक॑ रूपम् (अर्वः २१५) । आचार्य सायण ने इसका भाष्य करते हुए लिखा है- गुहारूपे सर्वप्राणि हृदये यत्
श्रत्यनप्रसिद्धं सत्यज़ञानादिलक्षणं परमम् ब्रह्म (अथर्व० २१.१ सा० भा०)।
८७ ब्रह्म-आत्मा (२.१) - 2°- ब्रह्म ।
८८. ब्रह्मगवी (५.९८-१९) - अथर्ववेदीय देवताओं में 'ब्रह्मगवी' को भी देवत्व प्रदान किया है । ब्रह्मगवी का सामान्य
अर्धं "बाह्मण की गाय' होता है; किन्तु विशिष्ट अर्थो में इसे ब्राह्मण कौ सम्पदा" भी कहते हैं । ब्ह्म-अर्थात् ब्राह्मण , गवी
अर्थात् गो। गो के कई अर्थ होते हैं,जैसे- गाय, भूमि, इन्द्रियाँ, वाणी तथा किरणे आदि । अथर्ववेद के पाँचवें काण्ड के
अठारहवें और उम्नीसवें सक्त में ब्रह्मगवी का बार-बार उल्लेख आया है, जिनमें ऐसे प्रसंग हैं, जिससे ब्राह्मण कौ सामान्य गाय
(पशु) की संगति नहीं बैठती ,वरन् उसका अर्थ ब्रह्मवृत्ति एवं ब्रह्मनिष्ठा लेने से तात्पर्य ठीक-ठीक समझ में आता है । जैसे- ब्रह्मगवी
पच्यमाना यावत् खभ विज हे । तेजो राष्ट्स्य निर्हन्ति... वृषा (अथर्व, ५१९४) ।इस मनर का सामान्य अर्थ तो यह है कि
जिस राष्ट्र में ब्राह्मण की गाय का हनन होता है, वह राष्ट्र तेजहोन हो जाता है; किन्तु विशिष्ट अर्थ में यह माना गया हे कि जिस
राष्ट्र में ब्रह्मनिष्ठा या ब्रह्मवृत्ति प्रायः समाप्त हो जाती है, वहां तेजस्विता समाप्त हो जाती रै । एक अन्य मन्त्र में कहा गया
है कि ब्राह्मण को गाय अथवा सम्पत्ति का अपहरण जिस राष्ट्र में होता है ,वहाँ कोई जाग्रत् नहीं रह सकता- ............... 4
ब्राह्मणस्थ गा जगध्या गष्टे आगार कथन ( अघर्व० ५,१९.१० ) । इसका भावार्थ है कि जिस राष्ट्र में ब्राह्मण कौ सम्पत्ति
(आदर्शों के प्रति निष्ठा अथवा लोकसेवी प्रवृत्ति) का हरण हो जाता है, वहाँ कोई जात् नहीं रह सकता । उसकी विचित्रता का
उल्लेख (अधर्व० ५.१९ ७) इस प्रकार है- वह गो आठ पाँव वाली, चार आँखों वाली, चार कानों वाली, चार हनु वाली, दो मुख
तथा दो जिङ्धा वालो होकर ब्राह्मण को सताने वाले राजा के राष्ट्र को हिला देती है- 'अष्टापदी चतुरक्षी चतुः श्रा ..-.. धुनुते
ब्रह्मज्यस्य ।' इसीलिए एक मंत्र में यह निर्देश है कि कोई राजा ब्राह्मण कौ गाय (सम्पत्ति) को नष्ट न करें- मा ब्राह्मणस्य राजन्य यौ
जिफ्तसों अनाद्याम् (अथर्व० ५ १८ १)। वृहत्सरवानुक्रमणी में बरह्मगवी का देवत्व इन शब्दों मे प्रतिपादित है- पञ्चदशके खह्मगवी
देकये (बृह सर्वा ५.१८-१९) ।