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भूमि, गृह, कन्या और कपिला गौका दान-ये

दस “महादान” हैं। विद्या, पराक्रम, तपस्या, | पुत्री और सहोदर भारईको दिया हुआ दान अनन्त

कन्या, यजमान और शिष्यसे मिला हुआ सम्पूर्ण | एवं अक्षय होता है। मनुष्येतर प्राणियोंको दिया

धन दान नहीं, शुल्करूप है। शिल्पकलासे प्राप्त

धन भी शुल्क ही है। व्याज, खेती, वाणिज्य और

दूसरेका उपकार करके प्राप्त किया हुआ धन,

पासे, जूए, चोरी आदि प्रतिरूपक (स्वाँग बनाने)

और साहसपूर्ण कर्मसे उपार्जित किया हुआ धन

तथा छल-कपटसे पाया हुआ धन-ये तीन

प्रकारके धन क्रमशः सात्विक, राजस एवं तामस-

तीन प्रकारके फल देते हँ । विवाहके समय मिला

हुआ, ससुरालको विदा होते समय प्रीतिके

निमित्त प्राप्त हुआ, पतिद्वारा दिया गया, भाईसे

मिला हुआ, मातासे प्राप्त हुआ तथा पितासे मिला

हुआ--ये छः प्रकारके धन “स्त्री-धन' माने गये

हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंके अनुग्रहसे प्राप्त

हुआ धन शुद्रका होता है। गौ, गृह, शय्या और

स्त्री-ये अनेक व्यक्तियोंको नहीं दी जानी

चाहिये। इनको अनेक व्यक्तियोंके साझेमें देना

पाप है। प्रतिज्ञा करके फिर न देनेसे प्रतिज्ञाकतकि

सौ कुलोंका विनाश हो जाता है। किसी भी

स्थानपर उपार्जित किया हुआ पुण्य देवता,

आचार्य एवं माता-पिताको प्रयतपूर्वक समर्पित

करना चाहिये। दूसरेसे लाभकी इच्छा रखकर

दिया हुआ धन निष्फल होता है। धर्मकी सिद्धि

श्रद्धासे होती है; श्रद्धापूर्वक दिया हुआ जल भी

अक्षय होता है। जो ज्ञान, शील और सदगुणोंसे

सम्पन्न हो एवं दूसरोॉंकों कभी पीड़ा न पहुँचाता

हो, वह दानका उत्तम पात्र माना गया है। अज्ञानी

मनुरष्योका पालन एवं त्राण करनेसे वह “पात्र”

कहलाता है । माताको दिया गया दान सौगुना

और पिताको दिया हुआ हजार गुना होता है।

गया दान सम होता है, न्यून या अधिक नहीं|

पापात्मा मनुष्यको दिया गया दान अत्यन्त निष्फल

जानना चाहिये। वर्णसंकरको दिया हुआ दान

दुगुना, शूद्रको दिया हुआ दान चौगुना, वैश्य

अथवा क्षत्रियको दिया हुआ आठगुना, ब्राह्मणन्रुव*

(नाममात्रके ब्राह्मण )-को दिया हुआ दान सोलहगुना

और केदपाठी ब्राह्मणको दिया हुआ दान सौगुना

फल देता है । वेदोकि अभिप्रायका बोध करानेवाले

आचार्यको दिया हुआ दान अनन्त होता है।

पुरोहित एवं याजक आदिको दिया हुआ दान

अक्षय कहा गया है। धनहीन ब्राह्मणोंकों और

यज्ञकर्ता ब्राह्मणको दिया हुआ दान अनन्त

फलदायक होता है। तपोहीन, स्वाध्यायरहित

और प्रतिग्रहे रुचि रख्नेवाला ब्राह्मण जलमें

पत्थरकी नौकापर बैठे हुएके समान है; वह उस

प्रस्तरमयौ नौकाके साथ ही डूब जाता है।

ब्राह्मणको स्नान एवं जलका उपस्पर्शन करके

प्रयलपूर्वक पवित्र हो दान ग्रहण करना चाहिये ।

प्रतिग्रह लेनेवालेको सदैव गायत्रीका जप करना

चाहिये एवं उसके साथ-ही-साथ प्रतिगृहीत द्रव्य

और देवताका उच्चारण करना चाहिये। प्रतिग्रह

लेनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मणसे दान ग्रहण करके उच्वस्वरमे,

क्षत्रियसे दान लेकर मन्दस्वरमे तथा वैश्यका

प्रतिग्रह स्वीकार करके उपांशु (ओको बिना

हिलाये) जप करे । शूदरसे प्रतिग्रह लेकर मानसिक

जप ओर स्वस्तिवाचन करे ॥ १९--२९\॥

मुनिश्रेष्ठ । अभयके सर्वदेवगण देवता हैं,

भूमिके विष्णु देवता हैं, कन्या और दास-दासीके

गर्ाधानादिभिर्भनररवेदोपनयनेन च । वाध्यापयति नाधीते स भवेड्राह्मणब्रुव: 8 (व्यासस्मृति ४। डरे)

जिसके परभाष्विनके संस्कार और वेदोक्त यज्ञोपवीत संस्कार हुए हैं, फंतु जो अध्ययन ~अध्यापनका कार्य नहीं करता, वह

*ग्राह्मणन्रुय' कहलाता है ।

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