देवता प्रजापति कहे गये हैं, गजके
देवता भौ | शुको
३९७
ददद
ही प्राप्त होता है ॥ ४७-५२ ॥
प्रजापति ही हैं। अश्वके यम, एक खुरवाले | वृ्तिरहित ब्राह्मण शुद्रसे गुड्, तक्र, रस आदि
पशुओंके सर्वदेवगण, महिषके यम, उष्टके निर्क्रति,
धेनुके रुद्र, बकरेके अग्नि, भेड्, सिंह एवं
वराहके जलदेवता, वन्य-पशुःओके वायु, जलपात्र
ओर कलश आदि जलाशर्योके वरुण, समुद्रसे
उत्पन्न होनेवाले रत्नों तथा स्वर्ण -लौहादि धातुओकि
अग्नि, पक्कान्न और धान्योकि प्रजापति, सुगन्धके
गन्धर्व, वस्त्रक बृहस्पति, सभी पक्षियोंके वायु,
विद्या एवं विद्याङ्गोकि ब्रह्मा, पुस्तक आदिकी
सरस्वती देवी, शिल्पके विश्वकर्मा एवं वृक्षोंके
वनस्पति देवता हैँ । ये समस्त द्रव्य-देवता भगवान्
श्रीहरिके अङ्गभूत है ॥ ४०--४६॥
छत्र, कृष्णमूृगचर्म, शय्या, रथ, आसन, पादुका
तथा वाहन -इनके देवता “ऊर्ध्वाड्विरा'
(उत्तानाङ्गिरा) कहे गये है । युद्धोपयोगी सामग्री,
शस्त्र ओर ध्वज आदिके सर्वदेवगण देवता हँ ।
गृहके भी देवता सर्वदेवगण ही है । सम्पूर्ण
पदार्थोके देवता विष्णु अथवा शिव हैं; क्योंकि
कोई भी वस्तु उनसे भिन्न नहीं है। दान देते समय
पहले द्रव्यंका नाम ले। फिर “ददामि' (देता हूँ)
ऐसा कहे। फिर संकल्पका जल दान लेनेवालेके
हाथमे दे। दानमें यहीं विधि बतलायी गयी है।
प्रतिग्रह लेनेवाला यह कहे--विष्णु दाता हैं,
विष्णु ही द्रव्य हैं और मैं इस दानको
ग्रहण करता हूँ; यह धर्मानुकूल प्रतिग्रह कल्याणकारी
हो। दाताको इससे भोग और मोक्षरूप फलोंकी
प्राप्ति हो।' गुरुजनों (माता-पिता) और सेवकोकि
उद्धारके लिये देवताओं और पितरोंका पूजन
करना हो तो उसके लिये सबसे प्रतिग्रह ले; परंतु
उसे अपने उपयोगमें न लाबे। शूद्रका
धन यक्ञकार्यमें ग्रहण न करे; क्योंकि उसका फल
इस प्रकार आदि आग्तेय महापुराणमें
पदार्थ ग्रहण कर सकता है। जीविकाविहीन द्विज
सबका दान ले सकता है; क्योंकि ब्राह्मण
स्वभावसे हौ अग्नि और सूर्यके समान पवित्रे है ।
इसलिये आपत्तिकाले निन्दित पुरुषोंकों पढ़ाने,
यज्ञ कराने ओर उनसे दान लेनेसे उसको पाप
नहीं लगता। कृतयुगे ब्राह्मणके घर जाकर दान
दिया जाता है, त्रेतामें अपने घर बुलाकर, द्वापरे
माँगनेपर और कलियुगमें अनुगमन करनेपर दिया
जाता है। समुद्रका पार मिल सकता है, किंतु
दानका अन्त नहीं मिल सकता। दाता मन-ही-
मन सत्पात्रके उद्देश्यसे निम्नलिखित संकल्प
करके भूमिपर जल छोडे-' आज मैं चन्द्रमा
अथवा सूर्यके ग्रहण या संक्रान्तिक समय गङ्गा,
गया अथवा प्रयाग आदि अनन्तगुणसम्पन्न तीर्थदेशमें
अमुक गोत्रवाले वेद-वेदाङ्गवेत्ता महात्मा एवं
सत्पात्र अमुक शर्पाको विष्णु, रुद्र॒ अथवा जो
देवता हों, उन देवता-सम्बन्धी अमुक महाद्रव्य
कीर्ति, विद्या, महती कामना, सौभाग्य और
आरोग्यके उदयके लिये, समस्त पापोंकी शान्ति
एवं स्वर्गके लिये, भोग और मोक्षके प्राप्त्यर्थ
आपको दान करता हूँ। इससे देवलोक, अन्तरिक्ष
और भूमि-सम्बन्धी समस्त उत्पातोंका विनाश
करनेवाले मङ्गलमय श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों
और मुझे धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्षकी प्राति
कराकर ब्रह्मलोक प्रदान करें।'
(तदनन्तर यह संकल्प पढ़े) “अमुक
नाम और गोत्रवाले ब्राह्मण अमुक शर्माकों
मैं इस दानकी प्रतिष्ठाके निमित्त सुवर्णकी
दक्षिणा देता हूँ।' इस दान-वाक्यसे समस्त दान
दे॥ ५३-६३ ॥
"दान- परिभाषा आदिका वर्णन” नामक
दो सौ नवँ अध्याय पूरा हुआ॥ २०९॥
ननन