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ततश्वानुदिनपल्पाल्पहासव्यक्च्छेदाद्धर्मर्थयो -
जगतस्सङ्घयो भविष्यति ॥ ७३ ॥ ततश्चार्थ
एवाभिजनहेतु: ॥ ७४ ॥ बलपमेवाहेषधर्महितु
॥ ७५ ।॥ अभिरुचिरेव दाम्पत्यसम्बन्धहेतु
॥ ७६ ॥ स्त्रीत्वमेवोषभोगहेतु: ॥ ७७ ॥
अनृतमेव व्यवहारजयहेतु: ।। ७८ ॥ उन्नताम्बुतैव
पृथिवीहेतुः ॥ ७९ ॥ ब्रह्मसूत्रमेव विभ्रत्वहेतुः
॥ ८० ॥ रन्रधातुतैव इलाघ्यताहेतु: ॥ ८१ ॥
लिङ्कधारणमेवाश्रमहेतुः ॥ ८२ ॥ अन्याय एव
वृत्तिहेतुः ॥ ८३ ॥ दौर्बल्यमेवावृत्तिहेतुः ।॥ ८४ ॥
अभयप्रगल्प्ो्ारणमेव पाण्डित्यहेतुः
॥ ८५ ॥ अनाङ्घतैव साधुत्वहेतुः ॥ ८६ ॥
खानमेव प्रसाधनहेतुः ॥ ८७ ॥ दानमेव धम्हितुः
॥ ८८ ॥ स्वीकरणमेव विवाहहेतुः ॥ ८९ ॥
सद्देषधार्येर पात्रम्॥ ९० ॥ दूरायतनोदकयेव
तीर्थहितु: ॥ ९१ ॥ कपटवेषधारणपेव महत्त्वहेतु:
॥ ९२ ॥ इत्येवमनेकदोषोत्तरे तु भूमण्डले
सर्ववण्ष्रिव यो यो बलवान्स स भूपति-
भविष्यति ॥ ९३ ॥
एवं चातिलन्धकराजासहादहौलानामन्तर
द्रोणी प्रजास्संश्रयिष्यन्ति ॥ ९४ ॥
॥ ९६ ॥
जीविष्यति अनवरतं चात्र कलियुगे क्षयमाया-
त्यखिल एवैष जनः ॥ ९७ ॥ श्रोते स्मात्ते च धर्मे
विघ्वमत्यन्तमुपगते क्षीणप्राये च कलावदोष-
जगत्तष्टश्चराचरगुरोरादिमध्यान्तरहितस्य ब्रह्म-
मयस्यात्मरूपिणो भगवतो वासुदेवस्यादा-
इशम्बलग्रामप्रधानब्राह्मणस्य विष्णुबशसो
गृहेषष्रगुणद्धिंसमन्वित: कल्किरूपी जगत्यत्रावतीर्य-
सकलम्लेच्छदस्युदुषटाचरणचेतसामरहोषाणा
क्षयं करिष्यति
चतुर्थं अदा
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तब दिन-दिन धर्म और अर्थक थोड-थोड़ा हास
तथा क्षय होनेके कारण संसारका क्षय हो जायगा ॥ ७३ ॥
उस समय अर्थ ही कुलीनताका हेतु होगा; बल ही सम्पूर्ण
धर्मक हेतु होगा; पारस्परिक रुचि ही दाम्पत्य-सम्बन्धकी
हेतु होगी, स्त्रीत्व ही उपभोगका हेतु होगा [अर्थात् खीकी
जाति-कृट आदिक विचार न होगा]; मिथ्या भाषण ही
व्यवहारमें सफलता भरा करनेका हेतु होगा; जलकी
सुरूभता और सुगमता हो पृथिवीक स्वोकृतिका हेतु होगा
[अर्थात् पुण्यक्षेत्रादिका कोई बिचार ¬ होगा। जहाँकी
जलवायु उत्तम होगी वही भूमि उत्तम मानी जायगी];
चज्ञोपजीत ही ब्राह्मणत्वक्य हेतु होगा; रत्नादि धारण करना
ही मशंसाका हेतु होगा; वाद्वा चिद्ध ही आश्रमोंके देतु होंगे;
अन्याय ही आजीविकाकः हेतु होगा; दुर्गस्व्ता ही
चेकारीका हेतु होगा; निर्भयतापूर्वक धृष्टताके साथ बोलना
ही पाण्डित्यका हेतु होगा, निर्धनता ही साधुत्वका हेतु
होगी; खान हो साधनका हेतु होगा; दान हो धर्मका हेतु
होगा; स्वीकार कर लेना ही विवाहका हेतु होगा [ अर्थात्
स॑स्कार आदिकी अपेक्षा न कर पारस्परिक स्त्रेहबन्धनसे ही
दाम्पत्य-सम्बन्ध स्थापित हो जायगा ]: भली प्रकार
बन-ठनकर रहनैवात्प ही सुपात्र समझा जावगा;
द्रदेशका जल ही तीर्थोदकलक हेतु होगा तथा छद्यवेदा
धारण हो गौरबका कारण डोगा॥ ७४--९२ ॥ इस
प्रकार पृथिब्रीमण्डलमें त्रिलिध दोषोंके फैल जानेसे
सभी वर्णों जो-जो नलबान् होगा बही-बही राजा बन
बैठेगा ॥ ९३ ॥
इस प्रकार अतिलोछ॒प राजाओंके कर-भारको सहन न
कर सकनेके कारण प्रजा पर्बत-कन्दराओंका आश्रय छेगी
तथा मधु, काक, मूत, फाल, पत्र और पृष्प आदि खाकर
दिन काटेगी ॥ ९४-९५ ॥ यक्षॉके पत्र और स्कर हो
उनके पहनने तथा ओढ़नेके कपड़े होंगे। अधिक यन्ता
होंगी । सब लोग जीत, वायु, घाम और वर्षा आदिके कट
सहेंगे॥ ९६॥ क्र भी तेईस वर्षतक जीवित न रह
सकेगा । इस प्रकार कलियुगमें यह सम्पूर्ण जनसमुदाय
निर्तर क्षीण होता रहेगा॥ ९७ ॥ इस प्रकार श्रौत और
स्मार्तधर्मका अत्यन्त हास हो जाने तथा कलियुगके प्रायः
बीत जानेपर झग्बल (सम्भल) ग्रामनिवासी ब्राह्मणश्रेष्
विष्णुयज्ञाके घर सम्पूर्ण संसारके रचयिता, चराचर गुरु,
आदिमभ्यान्तलुन्य, ब्रह्ममय, आत्मख्वरूप भगवान्
वासुदेन अपने ओजझ्से अगशवर्ययुक्त कल्किरूपसे
संसारम अवतार केकर असीम इक्ति और माह्यस्यसे