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* सौभाग्यझयन-अतकी विधि «
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सौभाम्यदायन-त्रतकी विधि
भगवान् श्रीकृष्ण बोले-- महाराज ! अब मैं सभी
कामना ओको पूर्ण करनेवाले सौभाग्वशयन-ब्रतका वर्णन करता
हूँ। जब प्रलयके पूर्वकरलमे-- भूर्भुवः स्वः' आदि सभी
तत्रेक दग्ध हो गये, तब सभी प्राणियोका सौभाग्य एकत्र होकर
वैकुण्टमे। भगवान् विष्णुके वक्षःस्थलमे स्थित हो गया । पुनः
जब सृष्टि हुई, तब आधा सौभाग्य ब्रह्माजीके पुत्र दक्ष प्रजापतिने
पान कर लिया, जिससे उनका रूप-लावण्य, बलः और तेज
सबसे अधिक हो गया। शेष आधे सौभाग्यसे इक्षु, स्तवराज,
निष्पाव (रोम), राजिधान्य (शालि या अगहनी) , गोझीर तथा
उसका विकार, कुसुंभ-पुष्प (केसर) , कुंकुम तथा लूवण--ये
आठ पदार्थ उत्पन्न हुए। इनका नाम सौभाग्याष्टक है! ।
दक्ष प्रजापतिने पूर्वकालमें जिस सौभाग्यका पान किया,
उससे सती नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई। सभी लोकोंमें उस
कन्याका सौन्दर्य अधिक था, इसीसे उसका नाम सती एवं
रूपमे अतिशय लालित्य होनेके कारण ललिता पड़ा।
त्रैल्लेक्ध-सुन्दरी इस कल्याका विवाह भगवान् शैकरके साथ
हुआ। जगन्माता छलितादेवीकी आराधनासे भुक्ति, मुक्ति और
स्वर्गका राज्य आदि सब प्राप्त होते हैं।
राजा युधिष्ठिरने पृषछा-- भगवन् ! जगद्धात्री उन
भगवतीकौ आराधनाका क्या विधान है ? उसे आप बतलायें।
भगयान् श्रीकृष्ण बोले -- महाराज ! चैत्र मासके शुक्र
पक्षकी तृतीयके ललितादेवीका भगवान् शंकरके साथ
विवाह हुआ । इस दिन पूर्वाह्ममें तिलमिश्रित जलसे खान करे ।
पञ्चगव्य तथा चन्दनमिश्रित जलके द्वारा गौरी और भगवान्
चन्द्रशेखसकी प्रतिनाकों स्रान कराकर धूप, दीप, नैवेद्य तथा
नाना प्रकारके फलोंड्वारा उन दोनोकौ पूजा करे । इसके बाद इस
प्रकार अङ्ग-पूजा करे--
"ॐ पाटलाये नमः, ॐ शाष्भवे नमः' ऐसा कहकर
पार्वती और जाम्भुके चरणोंकी, “ब्रियुगायै नमः, ॐ शिवाय
नमः' से दोनोंके गुल्फोंकी; 'विजयाये नमः, ॐ भद्ेश्वराय
नमः' से दोनोंके जानुओंकी, “ॐ ईशान्यै नपः, ॐ
हरिकेझाय नमः” से कटि-प्रदेशकी, ' ॐ कोटव्यै नमः, ॐ
शुल्िने नमः' से कुक्षियोंकी, ' ॐ मङ्गलायै नमः, 3» झर्वाय
नमः' से उदरकी, "ॐ उमायै नयः, ॐ श्राय नपः' से
कुचद्रयकी, "ॐ अनन्तायै नमः, ॐ त्रिपुरघ्नाय नमः' से
दोनोंके हाथोंकी पूजा करे । ' ॐ भवान्यै नमः, ॐ भवाय
नमः से दोनेकि कण्टकी, ' ॐ गौर्यै नमः, ॐ हराय नमः'
से दोनेकि मुखकी तथा "ॐ ललितायै नमः, ॐ सर्वात्मने
नमः' से दोनोंके मस्तककी पूजा करे ।
इस प्रकार विधिवत् पूजनकर शिव -पार्वतीके सम्मुख
सौभाम्याष्टक स्थापित कर "उमामहेश्वरौ प्रीयेताम' कहकर
उनकी प्रीतिके लिये निवेदन करे । उस रात्रिमें गोश्ृंगोदकका
प्राशनकर भूमिपर ही शायने करना चाहिये । प्रातः द्विज-
दम्पतिकी वस््र-मापर तथा अलकपरोसे पूजाकर सुवर्णनिर्मित
गौरी तथा भगवान् करकी प्रतिमाके साथ वह सौभाग्याप्टक
"ललिता प्रीयताम' ऐसा कहकर ब्राह्मणोंको दे दे ।
इस प्रकार एक वर्षतक प्रत्येक मासकी तृतीयाको पूजा
करनी चाहिये । चैत्र आदि बारहों मासोंमें क्रमशः गौके सीगका
जल, गोमय, मन्दार-पुष्य, बिल्वपत्र, दही, कुशोदक, दूध,
धृत, गोमूत्र, कृष्ण तिल और पह्चगव्यका प्रदाने करना
चाहिये । ललिता, विजया, भद्रा, भवानी, कुमुदा, शिवा,
वासुदेवी, गौरी, मङ्गला, कमला, सती तथा उमा--इन बारह
नामोको क्रमशः बारह महीनोमे दानके समय “प्रीयताम'
कहकर उच्चारण करे । मल्लिका, अशोक, कमल, कदम्ब,
उत्पल, मालती, कुड्मल, करवीर, बाण (कचनार या क्य),
खिल्म हुआ पुष्प, कुंकुम और सिंदुवार--ये बारह महीनोंकी
पूजाके लिये क्रमशः पुष्प कहे गये हैं। जपाकुसुम, कुसौभ,
मालती तथा कुन्दके पुष्प प्रदास्त माने गये हैं। करवीरकः पुष्प
भगवतीको सदा ही प्रिय है।
इस प्रकार एक वर्षतक व्रत करके सभी सामप्रियोसे
युक्त उत्तम शाय्यापर सुवर्णकी उमा-महेश्वस्की तथा
सुवर्णनिर्मित गौ तथा वृषभक प्रतिमा स्थापित कर उनकी
इक्षवः स्तवराजं च निष्का राजिधान्यकम्।
विकारवच शोक्षीर॑ कुसुन्भै ककु तथा । लवणं चाष्टमे तत्र॒ सौभाग्याौ्कमुच्यते ॥ (उत्तरपर्व २५। ९)