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अध्याय १३५-१३६ ]

है। वसुंधरे! अब अदीक्षित उपासकके लिये

प्रायश्वित्तेक उपाय बतलाता हूँ, वह सुनों। यदि

यह अग्निवर्ण-प्रतप्त सुराका पान करे तो उक्त

पापसे छूट सकता है। जो पुरुष इस विधिके

अनुसार प्रायश्चित्त करता है, वह न तो पापसे

लिप्त होता है और न संसारमें उसकी उत्पत्ति ही

होती है।

पृथ्वि! मेरी उपासना करनेवाला जो पुरुष

वनकुसुमका, जिसे लोक-व्यवहारमें 'बरे' कहते

हैं, शाक खाता है, बह पंद्रह वर्षोतक घोर नरकमें

पड़ता है। इसके बाद उसको भूलोकमें सूअरकी

योनि प्राप्त होती है। फिर तीन वर्षोतक वह कुत्ता

और एक वर्षतक शृगाल होकर जीवन व्यतीत

करता है।

भगवान्‌ वराहकी बात सुनकर देवी पृथ्वीने

श्रीहरिसे पुनः पूछा कि--कुसुमके शाकका

नैवेद्य अर्पण करनेसे जो पाप बन जाता है, प्रभो!

उससे कैसे उद्धार हो सकता है-इसके लिये

प्रायश्चित्त बतानेकौ कृपा कौजिये।'

भगवान्‌ वराह कहते है -- देवि! जो मानव

“वन-कुसुम' के शाकको मुझे अर्पितकर स्वयं

भी खा लेता है, वह दस हजार वर्षोतक नरके

क्लेश पाता है । उसका प्रायश्चित्त ' चान्द्रायण-्रत'

ही है। परेतु यदि वह केवल उसका प्रसाद भोग

बनाकर ही रह जाता है, खाता नहीं है तो वह

बारह दिनोंतक पयोव्रत करे। जौ इस प्रकार

प्रायश्चित्त कर लेता है, वह पापसे लिप्त नहीं

होता और मेरे लोकको ही प्राप्त होता है।

माधवि! मेरे कर्मं परायण जो मन्द बुद्धिका

व्यक्ति दूसरेके वस्त्रको चिना धोये ही पहन लेते

हैं तथा मेरी उपासनामें लग जाते हैं तो उन्हें भी

प्रायश्चित्ती बनना पड़ता है । देवि! यदि वह मेरा

स्पर्श करता है तथा परिचर्या करता है तो वह दस

* सेवापराध और प्रायश्चित्त *

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वर्षोतक हरिण बनकर रहता है, फिर एक जन्मे

वह लँगड़ा होता है ओर बादमें वह मूर्ख, क्रोधी

और अन्तमें पुनः मेरा भक्त होता है । सुश्रोणि,

अब मैं उसका प्रायश्चित्त बतलात्ता हूँ, जिससे

पाप-मुक्त होकर उसकी मेरी भक्तिमें रुचि उत्पन्न

होती है। वह मेरी भक्तिमें संलग्न होकर दिनके

आठवें भागमें आहार ग्रहण करे। जिस दिन

माघमासके शुक्लपक्षकी द्वादशौ तिथि हो, उस

दिन जलाशयपर जाकर शान्त-दान्त और दृढ़ब्रती

होकर अनन्यभावसे मेरा चिन्तन करे। इस प्रकार

जब दिन-रात समाप्त हो जाये तो प्रातःकाल

सूर्योदय हो जानेपर पञ्चगव्यका प्राशनकर मेरे

कार्यमें उद्यत हो जाय। जो इस विधानसे प्रायश्चित्त

करता है, वह अखिल पापोंसे मुक्त होकर मेरे

लोकको प्राप्त होता है।

जो व्यक्ति नये अनन उत्पन होनेपर

नवानविधिका पालन न करके उसे अपने उपयोगमें

लेता है, उसके पितरोंको पंद्रह वर्षोतक कुछ भी

प्राप्त नहीं होता। और जो मेरा भक्त होकर भी

नये अन्नोंको दूसरोंकों न देकर स्वयं अपने ही

खा लेता है वह तो निश्चय ही धर्मसे च्युत हो

जाता है। महाभागे ! इसके लिये प्रायश्चित्त बतलाता

हूँ, जो मेरे भक्तौके लिये सुखदायी है । वह तीन

रात उपवासकर चौथे दिन आकाश-शयनकर

सूर्यके उदय होनेके पश्चात्‌ पञ्चगव्यका प्राशनकर

सद्यः पायसे मुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति इस

विधिके अनुसार प्रायश्चित्त कर लेता है, वह

अखिल आसक्तियोंका भलीभाँति त्यागकर मेरे

लोकमें चला जाता है।

इसी प्रकार भूमे! जौ मानव मुझे विना चन्दन

और माला अर्पण किये ही धूप देता है, वह इस

दोषके कारण दूसरे जन्मे राक्षस होता है और

उसके शरीरसे मुर्दे-सी दुर्गन्धं निकलती रहती है

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