प्रध्यमपर्थ, तृतीय भाग ]
+ पुष्पवाटिका तथा तुल्वसीकी अतिष्ठा -विधि ५
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उसके बाद गन्ध, तेल, पुष्प ओर धुप आदिसे मन्त्रपूर्वक'
डनकी अर्चना कर उन्हें व्ल, नैवेद्य, दीप तथा चन्दन आदि
निवेदित करना चाहिये ¦ प्रतिष्ठाके अन्तमें श्राद्ध कर एक
ब्राह्मण-दम्पतिको भोजन कराना चाहिये । आठ हाथका एक
मण्डप बनाकर उसमें कलशकी स्थापना करें। उसपर
नारायणके साथ वरुण, दिव, पृथ्वी आदिका तत्-तत् मन्त्रे
पूजन करें, उसके बाद स्थाल्लीपाक-विधानसे हवनके हव्य
कुदाकषडिका करे । भगवान् वरुणका पूजन कर् सुवाद्रारा उन्हें
*बरुणस्य*' (यजुः ४ । ३६) इत्यादि मन्त्रोंस दस आहुतियाँ
प्रदान करे ॥ अन्य देवताओंके लिये क्रमशः एक-एक आहूति
दे। उसके बाद स्विष्कृत् हवन करे और अप्निकी
सप्तजिह्वा ओके नामसे चरुका हवन करें। तदनन्तर सभक
नैवेद्य और बलि प्रदान करें। इसके पश्चात् संकल्प-वाक्य
पढ़कर कृपका उत्सर्जन कर दे । ब्राह्मणको पयस्विनी गाय एवं
दक्षिणा प्रदान करे। यदि छोटे कृपकी प्रतिष्ठा करनी हो तो
गणेश तथा वरुणदेवताकी कलदाकरे ऊपर विधिवत् पूजा
करनी चाहिये। लाल सूत्रसे कलशको वेष्टित करना चाहिये।
यूप स्थापित करनेके पश्चात् संकल्पपूर्वक कूपका उत्सर्जन
करना चाहिये। ग्राह्मणोंकों विधिवत् सम्मानपूर्वक दक्षिणा देनी
चाहिये। (अध्याय ६२-१३)
पुष्पवाटिका तथा तुलसीकी प्रतिष्ठा-विधि
सूतजी कहते हैं--ब्राह्मणो ! पुष्पवाटिकाकी प्रतिष्ठामें
तीन हाथकी एक वेदीका निर्माण कर उसपर घरक स्थापना
करे। पुष्पाधिवाससे एक दिन पूर्व ब्राह्मण-भोजन कये ।
कलङापर गणेश, सूर्य, सोम, अग्निदेव तथा नारायणका
आवाहन कर पूजन करें। वेदीपर पधु तथा पायससे हवन
करे । ईशानकोणमें विधिवत् यूफ्का समारोपण कर उसके
मूलमें गुल्वारके दिन गेहुँओंका रोपण कर उन्हें सचि ।
वाटिकाक् रक्त सूत्रसे आवेष्टित करे । वाटिकाके पुष्प-वुक्षोंका
कर्णवेघ कराकर उन्हें कु्नोदकसे खान कये और ब्राह्मणको
घान्य, यव और गेहूँ दक्षिणारूपमें प्रदान करे और वाटिकाको
जलघारासे सौंचे ।
तुलसीकी प्रतिष्ठा ज्येष्ठ ओर आषाढ़ मासे विधिपूर्वक
करनी चाहिये । प्रतिष्ठाके लिये शुद्ध दिन अथवा एकादशी
तिथि होनी चाहिये । रात्रिमें घटकी स्थापना कर विष्णु, शिव,
सोम, ब्रह्मा तथा इन्द्रका पूजन करे । गायत्री-मन्त्र तथा पृवोक्त
देवताओंके मन्त्रोंद्रारा उन्हें स्नान कराये। “कया नश्चित्र"
(यजु" २७। ३९) इस मन्तरसे गन्ध, 'अ:शुना»' (यजुः
२०।२७) इस मन्ते इषे, "त्वां गन्धर्वाः" (यजुः
१२। ९८) तथा 'मा नस्तोके (यजः ९६ । १६) आदि
मन्त्रे पुष्प, "श्रीश्च ते. (यज् ३१। २२) तथा "वैश्वदेवी"
(यजु० १९। ४६) इन मन्म दुर्वा, 'रूपेण वो" (यजुः
७।४५) इस मन््रसे दर्पण और "याः फलिनीर्या (यजु
१२।८९) इस मन्त्रसे फल अर्पण को तथः *समिद्धो-'
(यजु० २९। १) इस मन्रसे अञ्जन लगाये । तुलसीको पीछे
सूत्रसे आवेष्टित कर उसके चारों ओर दूध और जरूकी धारा
दे। कदा तथा तुल्सीको वससे भलीभांति आच्छादित कर
घर आ जाय। दूसरे दिन तद्विष्णोः" (यजु ६। ५) इस
मन्त्रसे सुहांगिती स्ियोंद्राण मङ्गल -गानपूर्वक उसे स्नान
करये । मातृ-पूजापूर्वक वृद्धि-श्राद्ध केे। गन्ध आदि
पदार्थौदरारा आचार्य, होता और ब्रह्मा आदिका वरण करे । दस
हाथके मष्डपमे गोलाकार वेदीका निर्माण करे और वहाँ
भगवान् नारायणका पूजन करे । वेदीके मध्य ग्रह, स्रेकपाल,
सूर्य और मस्दगणोंकी पूजा करें। कलदाके चारों ओर रुदर
और वसुओंका पूजन करे । कुदा-कण्डिका करके, तिल-यवसे
हवन करे। विष्णुकों उद्दि'्ट कर १०८ आहुतियाँ दे। अन्य
देवताओंको यधाशक्ति आहुति प्रदान करे । यूप स्थापित कर
चरुकी बलि दे । चतुर्टिक् कटी -स्तम्भ स्थापित कर ध्वजा
फहराये। दक्षिणामें स्वर्ण, तिल- धान्य एवै पयस्विनी गाय
प्रदान करें। तुल्सीकों क्षीरधारा दे ।
कुछ ऐसे भी वक्ष हैं, जिनकी प्रतिष्ठा नहीं होती।
जैसे--जयन्ती, सोमवृक्ष, सोमवर, पनस (करल),
कदम्ब, निम्ब, कनकपाटला, शाल्मलि, निम्बक, विम्ब,
अज्ञोक आदि । इनके अतिरिक्त भद्रक, शमीकोण, चेडातक,
बक तधा खदिर आदि वृक्षोंकी प्रतिष्ठा तो करनी चाहिये, कितु
इनका कर्णवेध संस्कार नहीं करना चाहिये ।
(अध्याय १४-- १७)