७२ + संक्षिप्त
क
[ /»#ै४० ०७ ०३०४/४७ 0१९७५ ७ #०४१४* ०१ ४/$3+# /+#*ैं+ १४% ५७४७ # केक * » &ऋ४ + १३३४ 00#४०४ है ६» +
कम-से-कय एक सौ आठ यार और सम्भव
हो तो एक हारते अधिक बार पञ्चाक्षरी
नामक योग है। इससे क्डकर कोई योग
त्रिभुवने कहीं नही है। संसारमें कोई ऐसी
बस्तु नहीं, जो इससे सराध्य न हो। इस
लोकमें पिलनेवात्यर कोई फल हो या
परलोकमें, इसके द्वारा सब सुलभ हैं। यह
इसका फल नहीं है, ऐसा कोई नियन्त्रण नहीं
किया जा सकता; क्योंकि सम्पूर्ण श्रेयोरूप
साथ्यका यह श्रेष्ठ साधन दै) यह
निश्चितकपसे कहा जा सकता है कि पुरुष
जो कुछ फल चाहता है, वह सव
खिन्तामणिके समान इससे प्राप्न हये सकता
है। तथापि किसी क्षुद्र फलके उद्देश्यसे
इसका प्रयोग नहीं करना चाहिये; क्योकि
किसी महानसे लघु फलकी इच्छा
रखनेलाला पुरुष स्ययं त्वधुतर हो जाता है।
महादेखजीके उदेक्यसे महान् या अल्प जो भी
कर्मं किया जाय, वह सव सिद्ध होता है।
अतः उन्हीके उद्देदयसे कर्मका प्रयोग करना
चाहिये। इन्नु तथा पृत्युपर विजय पाना
आदि जो फल दूसरॉसे सिद्ध डोनेवाले नहीं
हैं, उनी स्म्रैकिक या पारलौकिक फलोंके
लिये बिद्वान् पुरुष इसका प्रयोग करे।
महापातकोभे, महान् रोगसे भय आदियें
तथा दुर्भिक्ष आदिमे यदि शान्ति करनेकी
आवश्चकता हो तो इसीसे झाच्ति करे ।
अधिक चदु-बद्कर याते ब्नानेसे क्या
स्परभ ? इस योग्ये महेश्वर दियने दौजोंके
लिये बड़ी भारी आपत्तिका निवारण
करनेवाला अपना निजी अख यताया है।
अत: इससे बढ़कर यहाँ अपना कोई रक्षक
नहीं है, ऐसा समझकर इस कर्मका प्रयोग
करनेवाला पुरुष शुभ फत्ता भागी होता
है। जो प्रतिदिन पथित्र एत॑ एकाग्रचित्त
होकर स्तोत्रपात्रका पाठ करता है, यह भी
अभीष्ट प्रयोजनका अप्टमांशा फल पा केता
है। जो अर्थका अनुसंधान करते हुए
पू्णिपा, अष्टमी अथवा चतुर्दशीको
उपवासपूर्ंक स्तोत्रका पाठ करता है, उसे
आधा अभीष्ट फल प्राप्त हो जाता है। जो
अर्थका अनुसंधान करते हुए छगातार एक
घासतक स्तोश्रका पाठ करता है और
पूर्णिपा, अष्टमी एवं चतुर्दशीको त्रत
रखता है, वह सम्पूणं अभीष्ट फलका भागी
होता है।
(अध्याय ३०)
है