* अध्याय ३५८ +
हुआ है। “तात' शब्द कृपापात्र तथा पिताके लिये | धातुसे “तन्' प्रत्यय और गुणादेश करनेपर ' गर्त"
प्रयुक्त होता है। कुत्सितशब्दार्थक “पर्द' धातुसे | शब्दकी सिद्धि होती है। यह 'अबट' अर्थात् गड्ढेका
'काकु' प्रत्यय होता है और वह 'नित्' माना जाता | वाचक है। 'भूमृशितृ०' इत्यादि (७) सूत्रके अनुसार
है। धातुके रेफका सम्प्रसारण और अकारका लोप
हो जाता है। जैसा कि सूत्र है--पर्देर्नित्
सम्प्रसारणमल्लोपश्ष।' (३६७) "काकु ' प्रत्ययके
आदि ककारका " लशक्रतद्धिते।' (१।३।८)-
इस सूत्रसे लोप हो जाता है। इस प्रक्रियासे
"पृदाकु' शब्दकी सिद्धि होती है। पर्दते--
कुत्सितं ' शब्दं करोति इति पृदाकुः ।' इसका अर्थ
है- सर्प, बिच्छू या व्याघ्र। 'हसिमृग्रिण्वाउमिद-
मिलूपूथूर्विभ्यस्तन्।' (३७३) इस सूत्रके द्वारा ' गृ"
*भर' धातुसे अतच्" प्रत्यय तथा गुणादेश करनेपर
"भरत" शब्द निष्पन्न होता है । जो भरण-पोषण
करे, वह ' भरत" है । ' नमतीति नटः '--इस व्युत्पत्तिके
अनुसार *जनिदाच्युसृवृमदि०' इत्यादि (५५४)
सूत्रके द्वारा नम" धातुसे “डट् ' प्रत्यय करनेपर "टि"
लोप होनेके पश्चात् * नट ' शब्द बनता है । इसका
अर्थ है--वेषधारी अभिनेता। ये थोडे-से उणादि
प्रत्यय यहाँ प्रदर्शित किये गये। इनके अतिरिक्त
भी बहुत-से उणादि प्रत्यय होते है ॥ ६--१२॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें "उणादिसिद्ध रूपोका वणि ' नामक
तीन सौ सत्तावतवाँ अध्याय पूरा हआ ॥ ३५७१
नवद
तीन सौ अट्टावनवाँ अध्याय
तिङ्विभक्त्यन्त सिद्धरूपोंका वर्णन
कुमार कार्तिकेय कहते हैं-- कात्यायन ! अब
मैं ' तिङ््-विभक्ति' तथा “अदेश ' का संक्षेपसे
वर्णन करूँगा। तिङ्-प्रत्यय भाव, कर्म और
कर्ता-तीनोंमें होते है। सकर्मक तथा अकर्मक
धातुसे कतमं आत्मनेपद तथा परस्मैपद- दोनो
पदोंके 'तिड्ग्रत्यय' होते है । (सकर्मकसे कर्ता
और कर्मे तथा अकर्मकसे भाव और कर्तामें वे
तिङ्" प्रत्यय हुआ करते है -- यह विवेक कर्तव्य
है) "तिङदेश' सकर्मक धातुसे कर्म तथा कर्तामें
बताये गये है । वर्तमानकालकी ` क्रियाके बोधके
लिये धातुसे " लट्” लकारका विधान कहा गया
है। विधि, निमन्त्रण, आमन्त्रण, अधीष्ट (सत्कारपर्वक
व्यापार), सम्प्रश्न तथा प्रार्थना आदि अर्थका
प्रतिपादन अभीष्ट हो तो धातुसे "लिङ्" लकार
होता है । ' विधि" आदि अर्थो तथा आशीर्वादमें
भी "लोट्" लकारका प्रयोग होता है । अनद्यतन
भूतकालका बोध करानेके लिये ' लङ्* लकार
प्रयुक्त होता है । सामान्य भूतकाले ' लुङ्" परोक्ष-
भूतमें "लिट्" अनद्यतन भविष्यमें "लुट्" आशीर्वादमें
"लिङ् शेष अर्थम अर्थात् सामान्य भविष्यत् अर्थके
बोधके लिये धातुसे " लृट्" लकार होता है -
क्रियार्था क्रिया होतो भी, न हो तो भी।
हेतुहेतुमद्भाव आदि "लिङ््*का निमित्त होता है;
उसके होनेपर भविष्यत् अर्थका बोध करानेके लिये
धातुसे “ लुङ्" लकार होता है -क्रियाकी अतिपत्ति
(असिद्धि) गम्यमान हो, तब । ' तङ प्रत्यय तथा
"शानच्", *कानच्'-- इनकी आत्मनेपद संज्ञा
होती है। "तिङ" विभक्तियाँ अठारह हैँ । इनमें
पूर्वकी नौ विभक्तियाँ ' परस्यैपद ' कही जाती दै ।
वे प्रथमपुरुष आदिके भेदसे तीन भागों वटी हैं।
"तिप् तस् अन्ति'-- ये तीन प्रथमपुरुष हैँ । "सिप्,
थस्, थ'--ये तीन मध्यमपुरुष हैं। तथा "मिप्, वस्,