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॥ १

के ६२९

[ कक कफ कै हक जैक जै कै मैट 3४ १९० ५९०३४ कह ले है टेक हैक कै ३ या यवतघ.

“चिराद्‌ है और पृथ्वीतत्त्वसे लेकर क्रमशः

शिवतक््वलक जो तत्त्वोंका समुदाय है, यही

ब्रह्माण्डः है। बह क़मझा: तत्त्वसपूहमें लीन

छोता हुआ अन्ततोगस्वा सबके जीवनभूत

औैतन्यमय परमेश्वरमें ही श्राप्त

होता है और सृष्टिकालपे फिर झक्तिद्वारा

दियते निकलकर स्थूलः अपक्षके रूपें

श्रतयक्रालपर्वन्त सुस्पपूर्वक स्थित रहता है ।

अपनी इच्छासे संसारकी सृष्टिके लिये

उच्चत हुए महेश्वरका जो प्रथम परिस्पन्द है, उसे

'झियतत्त्व' कहते है । यही इच्छाशक्ति-तत्त्व है

क्योकि सम्पूर्ण कृत्ये इसीका अनुवर्तन

होता है । पुनीक्षर ! ज्ञान ओर क्रिया--इन दो

जाक्तियाँगें जब ज्ञानका आधिक्य हो, तत्र उसे

सदाझिवतत््त समझना चाहिये; जब क्रिया-

शक्तिका उद्रेक हो तव उसे महेश्वरतक्त्व जानना

चाहिये तथा जब ज्ञान और क्रिया दोनो

दाक्तियाँ समान हों तब वहाँ शुद्ध थिद्यात्मक-

लत्व समझना चाहिये। समस्त भाव-पदार्थ

शुष ही हैं; तथापि उनमें जो

उसका नाम साया-तत्त्व है।

जब शित्र अपने परम ऐश्वर्यशाली रूपको

मायासे निगृहीत करके सम्पूर्णं पदार्थोको

अहण करने रूगता है, तब उसका नाम "पुरूष `

होता है। “तत्सूष्टवा तदेवानु प्राविशत्‌ (उस

शरीरको रखकर स्वयं उसमें प्रविष्ट दुआ) इस

श्रुतिने उसके इसी स्वरूपका ग्रतिपादन क्रिया

है अथवा इसी तत्त्वका प्रतिपादन करनेके

ल्व्यि उक्त श्रुतिका प्रादुर्भाव हुआ है। यही

पुरुष मायासे मोहित होकर संसारी (संसार-

बन्धने बेंथा हुआ) पशु कहलाता है।

दिवतत्त्वके ज्ञानसे शून्य होनेके कारण उसकी

बुद्धि नाना कर्मोमें आसक्त हो मूकुताको

आप्त हो जाती है। बह जगतको शिवसे अभिन्न

नहीं जानता तथा अपनेको भी झिवसे भिन्न ही

समझता है। प्रभो ! यदि दिवसे अपनी तथा

जगत्‌ककी अभिन्नताका बोध हो जाय तो इस

पशु (जीव) को मोहका यन्धन न प्राप्त छे ।

जैसे इन्द्रजाल-विद्याके ज्ञाता (बाजीगर) को

अपनी रची हुई अद्भुत वस्तु ओके चिषये मोह

या भ्रम नहीं होता है, उसी प्रकार ज्ञानयोगीको

मी नहीं होता। गुरुके उपदेशद्वारा अपने

ऐश्वर्यता बोध प्राप्त हो जानेपर बह

चिदानन्दधन दिवरूप ही हो जाता है।

शिबकी पाँच राक्तियां हैं--१-सर्व-

कर्तृत्वरूपा, २ काका ३-पूर्णत्वरूपा,

जीवको पाँच कलाएँ हैं--१-कर्ा, २-विद्या,

३-राग, ४-कालछ और ५-नियति । इन्हें कला-

पञ्चक कहते हैं। जो यहाँ पाँच तत्त्वोंके रूपपें

अकट होती है, उसका नाम 'कला' है। जो

कुछ-कुछ कर्तृतवपे हेतु बनती है और कुछ

तक्‍्थका साधन होती है, उस कलाका नाम

विद्या" है। जो चिषयोपे आसक्ति पैदा करने-

याली है, उस कलाका नाम "राग ' है । जो भाव

पदार्थों और प्रकादका भासनात्मकरूपसे

क्रमश: अवच्छेदक होकर सम्पूर्ण भूतोंका

आदि कहल्ाता है, वही "काल है। यह मेरा

कर्तव्य है और यह नहीं है--इस प्रकार

नियन्त्रण करनेवाली जो विभुकी शक्ति है,

उसका नाम 'निबति' है। उसके आक्षेपसे

जीवका पतन होता है। ये पाचों ह्वी जीतके

स्वरूपको आच्छादित करनेवाले आवरण हैं।

इसलिये 'पक्कखुक' कहे गये हैं। इनके

निवारण्के लिये अन्तरङ्ग साधनकी

आतश्यकता है। (अध्याय २५-१६)

तर

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