पे०५ सू० ८३ ९९
ये पर्जन्यदेव (अनुपयुक्त) वृक्षों का विनाश करते है । राक्षसो का हनन करते हँ । अपने भयंकर आधातों से
सम्पूर्ण लोकौ को भयाक्रान्त कर देते रै । गर्जना करते हुए ये पापियो को विनष्ट करते हैं और जल वृष्टि करके
निरपराधियों की रक्षा करते है ॥२ ॥ ।
४३३५. रथीव कशयाश्वां अभिक्षिपन्नाविर्दूतान्कृणुते वर्ष्यौर अह ।
दूरात्सिंहस्य स्तनथा उदीरते यत्पर्जन्यः कृणुते वर्ष्य नभः ॥२॥
जिस प्रकार रथी अपने घोड़ों को चाबुक से उत्तेजित करता है, उसी प्रकार पर्जन्य गर्जनकारी, शब्दों से मेघों
को प्रेरित करते हैं ।जब मेघ जलराशिसे पूर्ण होते है, तब सिंह के सदृश गर्जना करते है, जो दूर तक सुनाई देता है॥ ३ ॥
४३३६. प्र वाता वान्ति पतयन्ति विद्युत उदोषधीर्जिहते पिन्वते स्व: ।
इरा विश्वस्मै भुवनाय जायते यत्पर्जन्यः पृथिवीं रेतसावति ॥४ ॥
जब र्जन्यदेव जलराशि से युक्त होकर पृथ्वी की ओर अवतीर्णं होते हैं, तब वायु विशेष प्रवादयुक्त होती
है, विद्युत चमकती है और ओषधिरूप वनस्यतिया वृद्धि पाती हैं, आकाश सवित होता है तथा यह पृथ्वी सूरण
जगत् के हितार्थ पुष्ट होती है ॥४ ॥
४३३७. यस्य व्रते पृथिवी नन्नमीति यस्य व्रते शफवज्जर्भुरीति।
यस्य व्रत ओषधीर्विश्वरूपा: स नः पर्जन्य महि शर्म यच्छ ॥५ ॥
हे पर्जन्यदेव (आपके कर्मों के कारण पृथ्वी उत्पादनशील होती है तथा सभी प्राणी पोषण प्राप्त करते
है ।आपके कर्मों से ओषधिरूप वनस्पतियाँ नाना रूप धारण करती हैं । हे देव ! आप हमें महान् सुख प्रदान करें ॥ ५ ॥
४३३८. दिवो नो वृष्टि मरुतो ररीध्वं प्र पिन्वत वृष्णो अश्वस्य घारा:।
अवङततिन स्तनयिलनुनेहयपो निषिञ्चन्नसुरः पिता नः ॥६॥
हे मरुद्गणो ! आप हमारे निमित्त वृष्टि करें वर्षणज्ञील मे की जलधाराएँ हमें पोषण प्रदान करें । हे
पर्जन्यदेव ! आप गर्जनशौल मेघो के साथ जल का सिंचन करते हुए हमारी ओर आगमन करें । आप् प्राणवर्षक
रूप मे हमारे पिता स्वरूप पोषणकर्त्ता हैं ॥६ ॥
४३३९. अभि क्रन्द् स्तनय गर्भमा धा उदन्वता परि दीया रथेन ।
दृतिं सु कर्षं विषितं न्यञ्चं समा भवन्तदरतो निपादाः ॥७॥
हे पर्जन्यदेव ! गड़गड़ाहट कौ गर्जना से युक्त होकर ओषधिकूप वनस्पतयो में गर्भ स्थापित करें । उदक
धारक रथ से गमन करें । उदकपूर्ण (जलपूर्ण ) मेधो के मुख को नीचे करें और इसे खाली करें; ताकि उच्च और
निम्न प्रदेश समतल हो सकें ॥७ ॥
[ जब मेघ गरजते हैं, तब विदत् के प्रपाव से नाइट्रोजन के उर्वर यौगिक (कम्पाउण्ड) ययते हैं। उनसे वनस्पतिवों को
शक्ति मिलती है। ]
४३४०. महान्तं कोशमुदचा नि पिज्च स्यन्दन्तां कुल्या विषिताः पुरस्तात् ।
धृतेन द्यावापृथिवी व्युन्धि सुप्रपाणं भवत्वध्न्याभ्यः ॥८ ॥
हे पर्जन्यदेव ! अपने जलरूपी महान् कोश को विमुक्त करें और उसे नीचे बहाये, जिससे ये जल से परिपूर्ण
नदियाँ अवाधित होकर पूर्व की ओर प्रवाहित हों । आप जल-राशि से द्यावा-पृथिवौ को पुरिपर्णं करें; ताकि हमारी
गौओं को उत्तम पेय जल प्राप्त हो ॥८ ॥ `