+ विद्येश्वससंहिता ९
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प्राणियोको जन्म और मूत्युके क्से
छुद्धनेवात्या है । अधिके पहाड़-जैसा जो यह
शिवलिङ्ग यहाँ प्रकर हुआ है, इसके कारण
यह त्थान "अरुणाचल" नामसे प्रसिद्ध
झेगा। यहाँ अनेक प्रकारके कड़े-जड़े तीर्थं
प्रकट होगे । इस स्थानमें निवास करने या
मरनेसे जीबोंका मोक्षतक हो जायगा ।
मेरे दो रूप हैं--'सकतल' और
"निष्कल । दूसरे किसीके ऐसे रूप नहीं हैं।
पहले मैं स्तम्भरूपसे प्रकट हुआ; फिर अपने
साक्षात्-रूपसे । 'ब्रह्मभाल' मेरा 'निष्कत्क'
रूप है और “महेश्वरभाव' "सकल" रूप । ये
दोनों मेरे ही सिद्धरूप हैं। पै ही परब्रह्म
परमात्मा हूँ। कलायुक्त और अकल मेरे ही
स्वरूप हैं। ब्रह्मरूप होनेके कारण मैं ईश्वर
भरी ५ जीवॉपर अनुग्रह आदि करना मेरा
कार्य है । ब्राह्मा ओर केशव } मैं सबसे वहत्
ओर जगतक़ी वृद्धि करनेवाला होनेके
कारण "रह्म" कहल्लाता हूँ। सर्वत्र समरूपसे
स्थित और व्यापक होनेसे मैं हो सवका
आत्पा हूँ। सर्गसे लेकर अनुप्रहतक (आत्मा
या ईश्वरसे भिन्न) जो जगत्-सम्बन्धी पाँच
कृत्य हैं; ये सदा मेरे हो हैं, मेरे अतिरिक्त
दूसरे किसीके नहीं हैं; क्योंकि मैं ही सबका
ईश्वर हूँ। पहले मेरी ब्रह्मरूपताका बोध
करानेके लिये “निष्कल' लिङ्गं प्रकट हुआ
था। फिर अज्ञात ईश्वरत्वका साक्षात्कार
करानेके निपित्त मैं साक्षात् जगदीश्वर ही
"सकल" रूपमे तत्काल प्रकट हो गया ।
अतः मुझमें जो ईक्षत्व है, उसे ही येरा
सकलऊरूप जानना चाहिये तथा जो यह मेरा
निष्कल स्तम्भ हैं, बह मेरे ब्रह्मस्वरूपका योध
करानेवात्ता है । यह मेरा ही लिङ्ग (चिह्न)
दै । तुम दोनों प्रतिदिन यहाँ रहकर इसका
पूजन करो । यह मेरा ही स्वरूप है और मेरे
सामीप्यकी आप्ति करानिवास्ा है। लिङ्ग और
लिड्जीमें नित्य अभेद होनेके कारण मेरे इस
लिझ्जका महान् पुरुषोंकों भी पूजन करना
चाहिये। मेरे एक लिङ्गकी स्थापना करनेका
यह फर बताया गया है कि उपासकको मेरी
समानताकी प्राप्ति हो जाती है। यदि एकके
आद दूसरे शिवल्िड्रकी भी स्थापना कर दी
गयी, त्व तो उपासककों फल्ठरूपसे मेरे
साथ एकत्व (सायुज्य मोक्ष) रूप फल प्राप्त
होता है। प्रधानतया शिवलिड्डकी ही
स्थापना करनी चाहिये। मूर्तिकौ स्थापना
उसकी अपेक्षा गौण कर्म है । शिवलिङ्खके
अभावे सब रसे कवेर (पूर्तियुक्त)
होनेपर भी यह स्थान क्षेत्र नहीं कहलाता ।
(अध्याय ९)
्ः
पाँच कृत्योंका प्रतिपादन, प्रणव एवं पन्ञाक्षर-मन्त्रकी महत्ता,
ब्रह्मा-विष्णुद्धारा भगवान् शिवकी स्तुति तथा उनका अन्तर्धान
ब्रह्म और विष्णुने पुछा--प्रभो ! सृष्टि
आदि पाँच कृत्योकि लक्षण क्या हैं, यह हम
दोनोंकों बताइये ।
भगवान् शित्र बोले--मेरे कर्तव्यॉको
समझना अस्यन्त गहन है, तथापि मैं
कृपापूर्व्त तुम्हें उनके विष्यमें चता रहा हूँ।
ज्रद्म और अच्युत ! 'सुष्टि', 'पालन',
*संहार', "तिरोभाव" और 'अतुग्नह'-ये
पाँच ही मेरे जगत-सम्बन्धी कार्य हैं, जो
नित्यसिद्ध हैं। संसारकी रचनाका जो