परिशिष्ट-९ १.१७
१२८.मान्धाता यौवनाश्व (१०९०, ९२) - सूर्यवंशी राजाओं में बुवनाश्व का नाम प्रख्यात है । महाराजा
मान्धाता इन्हीं के पुत्र थे । पुत्रेष्टि यज्ञ के फलस्वरूप इनकी उत्पत्ति हुई थी । इनकी गणना योगी राजाओं में होती
थी । इन्हें ऋग्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का मंत्रा ऋषि कहा गया है-- युवनाश्रपुत्रस्य मान्धातुरार्म् ।....
उभे यन्मान्धाता यौवनाश्रो.... (०१०. १३४ सा० भा०) ।
१२९.मेधातिथि काण्व (३, १६, ३२, ९१३९ आदि) - मेधातिधि काण्व को ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के
१२वें सूक्त तथा इसी मंडल के २३ वें सूक्त का ऋषित्व पद प्राप्त है आचार्य सायण ने इस तथ्य का उल्लेख
करते हुए लिखा रै-- तत्र अग्निं दूतं इत्यादिकस्य द्वादशर्चस्य प्रथमसुक्तस्य कण्वपुत्रो मेघातिधिकऋषिः (ऋ०
१. १२ सा० भा०); 'ऋषिश्चान्यस्मात् (अनु० १२.२); इति परिभाषयानुवर्तनान्ेधातिधिः काण्व ऋषिः (ऋ०
१.२३ सा० भा०) । मेघातिथि काण्व को वैदिक साहित्य के अन्तर्गत विशेष ख्याति प्राप्त है । शताधिक सक्तो
व मन्त्रो के आप मान्य ऋषि है ।
१३०.मेथातिथि काण्व और प्रियमेध आंगिरस (१२३, १२४, १५७ आदि) - ऋग्वेद के अष्टम
मण्डल के दूसरे सूक्त के १ से ४० मनर का साक्षात्कार मेधातिधि काण्व तथा प्रियमेध आंगिरस दोनों ने संयुक्त
रूप से किया है-- “तथा चानुक्रान्त्-इदै वसो द्विचत्वारिशन्मेधातिथिरांगिरसश्च प्रियमेथ: ...
मेधातिथिर्विभिंदोर्दानम्,... (ऋ० ८. २ सा० भा०) । अथर्ववेद २०.१८.१ में इस सूक्त के तीन मच संगृहीत हैं,
जिनके ऋषि मेधातिचि काण्व और प्रियमेध आंगिरस ही है ।
१३१.मेध्य काण्व (२८२) - कण्व- गोत्रीय होने से इनके नाम के साथ काण्व विशेषण सम्बद्ध किया जाता
है । ऋग्वेद में मेध्य काण्व द्वारा दृष्ट सूक्त (८.५३; ५७-५८) वालखिल्य सूक्त के नाम से प्रख्यात है । आचार्य
सायण ने जिनका भाष्य प्रस्तुत नहीं किया है, परन्तु राजकीय संस्कृत पाठशाला-वाराणसी की प्राप्त हुई ज्ञ- संज्ञक
पुस्तक मे वालखिल्य सूक्तों का भाष्य उपलब्ध होता है- "उपमं त्वा' इत्य्टच॑ पज्लमं सुक्तं काण्वस्य मेध्यस्यार्षम् ।
अनुक्रान्तं च-'उपम॑ त्वष्टौ मेध्यः" इति (०८.५३) ।
१३२.मेध्यातिथि काण्व (२४९, २५९ आदि) - इनका नाम काण्ववंशीय ऋषि परम्परा के अन्तर्गत निरूपित
है-... परमज्या मघस्य मेख्यातिथे (ऋ० ८, १.३०) । याज्ञिक कार्यों में इन्हें संभवत: अतिथि सत्कार का कार्य सौपा
जाता था । यही इनके नामकरण का कारण है । इनके समक्ष एक बार इन्द्र मेष रूप में प्रकट हुए थे सोम सवन
के समय यह कथा प्रचलित है-- काण्वं म्रेध्यातिथं । येषो भूतोरेभि यन््नयः (ऋ ८. २ ४० ) इसी मंत्र का
भाष्य करते हुए आचार्य सायण ने लिखा है-- धीवन्त॑ स्तुतिमन्त॑ काण्वं कण्वपुत्रे मेध्यातिधिं .... वज्रवन्निद्र
मेषो भूतो मेषरूपतां प्राप्तोडभियन्नभिगच्छन्।
१३३.यजत आत्रेय (११४३-४५) - यजत त्रेय ऋषि को ऋग्वेद के पंचम मण्डल के अन्तर्गत ६७-६८ वे
सूक्त का ऋषित्व पद प्राप्त है । इसका उल्लेख वेदों के प्रमुख भाष्यकार आचार्य सायण ने अपने भाष्य में किया
है- ..अत्रेयपनुक्रमणिका । बल्ठित्था पंच यजत इति । यजतो नामाजेय ऋषि: (ऋ०५, ६७ सा० भा०) | इसके
अतिरिक्त यजत अत्रेय को साम मनर ११४३-४५, १४७१-७३ का ऋषित्व पद भी प्राप्त है ।
१३४.ययाति नाहुष (५४७) - 'नाहुष' नाम व्यक्तिवाचक माना जाता है । इस पद का अर्थ नहुष जन से
संबद्ध या नहुषों का राजा है। ययाति नहुष के वंशज है । ययाति-नाहुष को यज्ञकर्ता भी कहा गया है । मनु
के पुत्र का नाम नहुष था तथा नहुष के पुत्र का नाम ययाति था; जैसा कि भाष्यकार आचार्य सायण ने लिखा