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ललितातृतीया-त्रतकी विधि

राजा युधिष्ठिरे कहा--भगवन्‌ ! अब आप द्वादशा

मासेमिं किये जानेवाले ब्रतोंका वर्णन करें, जिनके करनेसे सभौ

उत्तम फल प्राप्त होते हैं, साथ ही प्रत्येक मास-्रतका विधान

भी बतानेकी कृपा करें।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले--महाराज ! इस विषयमे मैं

एक प्राचीन वृत्तान्त सुनाता हूँ, आप सुनें--

एक समय देवता, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, सिद्ध, तपस्वी,

नाग आदिसे पूजित भगवान्‌ श्रीसदाशिव कैत्तपरसपर्वतपर

विराजमान थे । उस समय भगवती उपाने विनयपूर्वक भगवान्‌

सदाशिवसे प्रार्थना की कि महाराज} आप मुझे उत्तम

तृतीया-व्रतके विषयमें बतानेकी कृपा करें, जिसके करनेसे

नारीकों सौभाग्य, धन, सुख, पुत्र, रूप, लक्ष्मी, दीर्घायु तथा

आरोष्य प्राप्त होता है और स्वर्गकी भी प्रपतति होती है। उमाकी

यह बात सुनकर भगवान्‌ शिवने हँसते हुए कहा--'प्रिये !

तीनों लोकम रसा कौन-सा पदार्थ है जो तुम्हें दुर्लभ है तथा

जिसकी प्राप्तिके लिये व्रतकी जिज्ञासा कर रही हो ।'

पार्वतीजी बोलीं--महाराज ! आपका कथन सत्य ही

है। आपको कृपासे तीनों लोकोकि सभौ उत्तम पदार्थ मुझे

सुलभ हैं, कितु संसारम अनेक ख्रियाँ विविध कामनाओंकी

प्राप्तिके ल्ययि तथा अमज़जल्लोंकी निवृत्तिक लिये भक्तिपूर्वक

मेरी आराधना करती हैं तथा मेरी शरण आती हैं। अतः ऐसा

कोई त्रत बताइये, जिससे वे अनायास अपना अभीष्ट प्राप्त

संयमपूर्वक माघशुक्ला तृतीयक प्रात: उठकर नित्यकर्म

सम्पन्नकर ब्रतके नियमको ग्रहण करे । मध्याद्के समय विल्व

और आमल्कमिश्रित पवित्र जलसे खान कर शुद्ध वस्त्र छारण

करे तथा गन्ध, पुष्प, दीप, कपूर, ककम एवं विविध नैवेद्ये

भक्तिपूर्वक भक्तोपर॒वात्सल्यभाव रखनेवाली तुम्हारी

(पार्वतीकी) भक्तिभावसे पूजा करें। अनन्तर ईशानी नामसे

तुम्हाया ध्यान करते हुए तावेक घड़ेमें जल, अक्त तथा सुवर्ण

रखकर सौभाग्यादिकी कामनासे संकल्पपूर्वक वह घट

ब्राह्मणको दान दे दे। ब्राह्मण उस घरस्थ जलसे ब्रतकर्त्रीका

अभिषेक करे । अनन्तर बह कुझोदकका आचमन कर रात्रिके

समय भगवती उमादेवीका ध्यान करते हुए भूमिपर कुकी

जय्या बिछाकर सोये। दूसरे दिन प्रातः उठकर स्लानसे निवृत्त

हो, विधिपूर्वकं भगवतीका पूजन करे और यथाशक्ति

ब्राह्मणोंकों भोजन कराये तथा स्वयै भी मौन होकर भोजन

करे । इस प्रकार भगवतीका प्रथम मासमे ईशानी नामसे,

द्वितीय मासमें पार्वती नामसे, तृतीय मासमें शकरप्रिया नामसे,

चतुर्थ मासम भवानी नामसे, पाँचवें मासमे स्कन्दमाता नामसे,

छठे मासमें दक्षदुहिता नामसे, सातवें मासमें मैनाकी नामसे,

आठवें मासमे कात्यायनी नामसे, चवे मासमे हिमाद्रिजा नामसे,

दसवें मासमें सौभाग्यदायिनी नामसे, स्यारहवें मासम उमा

नामसे तथा अन्तिम बारहवें मासम गौरी नामसे पूजन करे ।

वारो मासोमें क्रमशः कुशोदक, दुग्ध, घृत, गोमूत्र, गोमय,

फल, निम्ब-पत्र, कंटकारी, गोश्रृंगोदक, दही, पञ्चगव्य और

शाकका प्रादान करे ।

इस प्रकार बारह मासतक ब्रतकर श्रद्धापर्वक भगवतीकी

पूजा करे और प्रत्येक मासमे ब्राह्मणोंकों दान दे । व्रतकी

समाप्तिपर वेदपाठी ब्राह्मणको पलीके साथ बुलाकर दोनॉमें

दिव-पार्वतीकी बुद्धि रखकर गन्ध -पुष्यादिसे उनकी पूजा करे

और उन्हें भक्तिपूर्वकं भोजन कराये तथा आभूषण, अन्न,

दक्षिणा आदि देकर उन्हें संतुष्ट करे। ब्राह्मणको दो शुक वख

तथा ब्राह्मणीको दो रक्त बस्तर प्रदान करे । जो ली इस ब्रतको

भक्तिपूर्वकं करती है, वह अपने पतिके साथ दिव्यल्त्रेकमें

जाकर दस हजार वर्तक उत्तम भोगोंका भोग करती है। पुनः

मनुष्य-ततरकमे आनेके बाद वे दोनों दम्पति ही होते हैं और

आरोग्य, धन, संतान आदि सभी उत्तम पदार्थ उन्हें प्राप्त होते

हैं। इस व्रतकं पालन करनेवाली खक पति सदा उसके

अधीन रहता है और उसे अपने प्राणोंसे भी अधिक मानता है ।

जन्मान्तरमें ब्रतकत्रीं स्त्री राजपत्नी होकर ग्रज्य-सुखका उपभोग

करती है।

(अध्याय २१)

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