उत्तराधिंके ठृतीयो ध्याय: ३.9
॥ षष्ठ; खण्ड: ॥
८२४.एवा हयसि वीरयुरेवा शूर उत स्थिरः ।
एवा ते राध्य॑ मनः ॥९॥
युद्ध मे वीरो का सदुपयोग करने वाले है इन्द्रदेव ! आप शूरवीर हैं, युद्ध में डटे रहने वाले हैं, इसलिए
आपका मनोबल प्रशंसा के योग्य है ॥१ ॥
८२५. एवा रातिस्तुविमघ विश्वेभिर्धायि धातृभिः ।
अधा चिदिन्द्र नः सचा॥२॥
हे रेश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! साधको द्वारा दैवी प्रवृतियों के लिए नियोजित किये गये आपके द्वारा प्रदत्त साधन
कभी समाप्त नहीं होते, इसलिए हे इन्द्रदेव ! आप हमें ऐश्वर्यवान् बनाकर हमारी सहायता करें ॥२ ॥
८२६.मो घु ब्रह्मेब तन्द्रयुर्भुवो वाजानां पते।
मत्स्वा सुतस्य गोमतः ॥३॥
है अनाधिपति, बलवान् इन्रदेव ! गाय के दूध में मिलाये गये मधुर सोमरस का पान करके आप आनन्दित
हों । आलसी ब्राह्मण की धति निष्क्रिय न रहें ॥३ ॥ ह
८२७.इनद्ं विश्वा अवीवृधन्त्समुद्र॒व्यचस गिरः ।
रथीतमं रथीनां वाजानां सत्पत्ति पतिम् ॥४॥
समुद्र के समान विशाल, महारथी, बलों के स्वामी, दैवी शक्तियों के संरक्षक इन्रदेव की प्रशंसा सभी
स्तुतियों द्वारा की जाती है जिनसे उनका यश बढ़ता है ॥४ ॥
८२८.सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भेम शवसस्पते ।
त्वाभि प्र नोनुमो जेतारमपराजितम् ॥५ ॥
हे बलरक्षक इन्द्रदेव ! आपकी मित्रता में हम बलशाली होकर किसी से न डरें। हे अपराजित विजयी
इन्द्रदेव हम साधकगण आपको प्रणाम करते हैं॥५ ॥
८२९.पूर्वीरिद्वस्थ रातयो न वि दस्यन्त्यूतयः ।
यदा वाजस्य गोमत स्तोतृभ्यो मंहते मघम् ॥६॥
देवराज इद्ध की दानशीलता सनातन है । सूर्य रश्मियों के माध्यम से उत्न अन्नादि पोषक तत्त्व, जब वह
स्तोताओं को देते हैं, तब याजक का दान क्षीण नहीं होता ॥६ ॥
॥इति षष्टः खण्डः ॥
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