* अध्याय ६५०५
(
है है # # # # के #।
उनमेंसे कोण-दिशाओंमें स्थिते आर्यको त्याग
देना चाहिये। चार, तीन, दो अथवा एकशालाका
गृह बनावे। जहाँ व्यय (ऋण) अधिक हो, ऐसे
*पद^' पर घर न बनावे; क्योकि वह व्ययरूपी
दोषको उत्पन्न करनेवाला होता है। अधिक
"आय ' होनेपर भी पीड़ांकी सम्भावना रहती है;
अतः आय-व्ययको समभावसे संतुलित करके
रखे॥ १--५ ६ ॥
घरकी लंबाई" और चौड़ाई जितने हाथकी
हों, उन्हें परस्पर गुणितं करनेसे जो संख्या
होती है, उसे “करराशि' कहा गया है; उसे
गर्गाचार्यकी बतायी हुई ज्योतिष-विद्यामें प्रवीण
गुरु (पुरोहित) आठगुना करे। फिर सातसे भाग
देनेपर शेषके अनुसार ' वार 'का निश्चय होता है
और आठसे भाग देनेपर जो शेष होता है, वह
"व्यय" माना गया है। अथवा विद्वान् पुरुष
करराशिमे सातसे गुणा करे। फिर उस गुणनफलमें
आठसे भाग देकर शेषके अनुसार ध्वजादि
आयोंकी कल्पना करे।
१. ध्वज, २. धूम्र, ३. सिंह, ४. श्वान,
५. वृषभ, ६. खर (गधा), ७. गज (हाथी) और
८. ध्वाङ्क्ष (काक) -ये क्रमशः आठ आय कहे
गये हैं, जो पूर्वादि दिशाओमिं प्रकट होते हैं--इस
प्रकार इनकी कल्पना करनी चाहिये ॥ ६--९॥
तीन शालाओंसे युक्त गृहके अनेक भेदोंमेंसे | पढ़े
तीन प्रारम्भिक भेद उत्तम माने गये हैं।' उत्तर-पूर्व
दिशामें इसका निर्माण वर्जित है। दक्षिण दिशामें
अन्यगृहसे युक्त दो शालाओंबवाला भवन सदा श्रेष्ठ
अत ]842805242043485804888.
माना जाता हैं। दक्षिण दिशामें अनेक या एक
शालावाला गृह भी उत्तम है। दक्षिण-पश्चिममें
भी एक शालावाला गृह श्रेष्ठ होता है। एक
शालावाले गृहके जो प्रथम (ध्रुव और धान्य
नामक) दो भेद हैँ, वे उत्तम हैं। इस प्रकार गृहके
सोलह भेदोंमेंसे अधिकांश (अर्थात् १०) उत्तम
हैं और शेष (छः, अर्थात् पाँचवाँ, नवौ, दसौ,
ग्यारहवाँ, तेरहवाँ और चौदहवाँ भेद) भयावह
हैं। चार शाला (या द्वार)-वाला गृह सदा उत्तम
है; वह सभी दोषोंसे रहित है। देवताके लिये
एक मंजिलसे लेकर सात मंजिलतकका मन्दिर
बनावे, जो द्वार-वेधादि दोष तथा पुराने सामानसे
रहित हो। उसे सदा मानव-समुदायके लिये
कथित कर्म एवं प्रतिष्ठा-विधिके अनुसार स्थापित
करे॥ १०--१३ ३॥
गृहप्रवेश करनेवाले गृहस्थ पुरुषको चाहिये
कि वह आलस्य छोड़कर प्रातःकाल सर्वषधि-
मिश्रित जलसे स्नान करके, पवित्र हो, दैवज्ञ
ब्राह्र्णोकी पूजा करके उन्हें मधुर अनन (मीठे
पकवान) भोजन करावे। फिर उन ब्राह्मणोसे
स्वस्तिवाचन कराकर गायके पीठपर हाथ रखे
हुए, पूर्ण कलश आदिसे सुशोभित तोरणयुक्त
गृहमे प्रवेश करे। घरमे जाकर एकाग्रचित्त हो,
गौके सम्मुख हाथ जोड़ यह पुष्टिकारक मन्त्र
-' ॐ श्रीवसिष्टजीके द्वारा लालित-पालित
नन्दे! धन और संतान देकर मेरा आनन्द बढ़ाओ ।
प्रजाको विजय दिलानेवाली भार्गवनन्दिनि जये।
तुम मुझे धन और सप्पत्तिसे आनन्दित करो।
१. भूमिकी लंबाई- चौदार्हको परस्पर गुणित करनेसे जो संख्या आती है, उसे 'पद' कहते है ।
२-३. नारदपुराण, पूर्यभाग, द्वितौयपाद, अध्याय ५६के क्लोक ५८० से ५८२ में कहा गया है कि 'घरके छः भेद है - एकशाला,
द्विशाला, ्रिशाला, चतुःशाला, सप्तशालः और दशशाला'। इनमेंसे प्रत्येकके सोलह-सोलह भेद होते ह । उन सबके नाम क्रमशः
इस प्रकार हैं --१. ध्रुव, २. धान्य, ३. जय, ४. नन्द, ५. छर्, ६. कान्त, ७. मनोरम, ८. सुमुख, ९. दुर्मुख, १०. कूर, ११. रव्रद,
१२. स्वर्णद, १३. क्षय, १४. आक्रन्द, १५. विपूल. १६. विजय । पूर्वादि दिशाओं इनका निर्माण होता है । इनका जैसा नाम, वैसा
हो गुण है।