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अन्व स्सिप्ने वताय । गौओंके मूत्र, गोबर, दूध, दही और
घी--ये पाँचों प्रस्तुएँ पवित्र हैं और सम्पूणं जगत् फो पवित्र
करती ई । गाये मेरे आगे रहें; गये मेरे पीछे रहें, गायें
मेरे हृदयर्म रहें और मैं गौभोंके मयमे निवास करूँ ।७
ओ प्रतिदिन तीनों सम्ध्वाओंके सस्व नियमपरायण एवं
पवित्र होकर “गांवों मे चारतो नित्यं" इत्यादि शोका पाठ
करता है, वद् खय पापोंसे मुक्त होता और स्वगंोक्म जाता
है । प्रतिदिन भक्तिभावने गौओंँझछो गो.भास देनेमै अदा
रखनी चौथे | जो प्रतिदिन गोग्रास अर्पण करता है, उसने
अग्र कर दिया, पिततरोको वृत्त कर दिया और देवताओंकी
पूजा भी सम्पन्न करे डी । गोग्रास देते समय प्रतिदिन एस
मन्जार्थफा चिन्तन केरे । सुरमिश्टी पृत्नी गोजाति सम्पूर्ण
जगतके सि पूज्य है, यह सदा विष्णुपदर्म स्थित है और
सर्वदेवमयी है। भरे दिये हुए इस प्रासक्रों गौमाता देखें
और ग्रदण करें ।†
जह्गोंकी रक्षा करने, गौओँकछो खुजलाने और सषटाने
तथा दीनदर्बल-दुखी श्राणिर्योका पाटन करनेसे मनुध्य
स्वर्ग रोके प्रतिष्ठित होता है। यशका आदि, अन्ते और मध्य
गौओंकों ही बताया गया है | ये दूषः घी और अमूत सब
कुछ देती हैं। श्सलिये गोका दान करना चाहिये और
उनकी प्रतिदिन पूजा करनी चाहिये । ये गौएँ स्वर्गलोकं
जानिके छिये सीदी बनायी गयी हैं।
# गाव: भ्रदक्षिनी छाया कन्दजोथा हि नित्वशः ।
मङ्गलायतनं दिव्याः उशस्त्वेता: लका ॥
ऋष्यागाराणि विप्रां देक्तायतनानि च।
च्रोमयेन शुरूपन्ति कि भमो दधिकं ततः ॥
गोमू गोमयं क्षीरं दपि सर्पिस्तकैंब च ।
गवां पश्च षविष्ठाति पृननि त्तकं ऋत् ॥
गाबों मे चामतो नित्यं स्वव: पृष्ठत एवं च।
गदो म डुदये चैव गवां मध्ये वल्ताम्यहन् ॥
( स्कर पु० आग० रे रे । ६२--६५)
¶ तेनाग्तदो हुला: सम्यक पितरश्चापि स्विः ।
( रकू० ० आव० २० {९ । ६८.६९ }
# शारणं रज सर्वेशं मृत्युंजयमुमापतिम्
[ संक्षिप्त स्कन्दपुराण
शौभोंके इस उत्तम माहात्म्थकों खुनकर निपादोने
महाभाग प्रणाम करके कहा- प्रभो !
इसने सुना र कि खाधुपुरुषोंके सम्भाषण, दर्शनः स्पर्श:
अब और कीर्तन सभी पवित्र करनेवाले हैं। दमने यहाँ आप
जैसे मद्दात्माके खय वातांझप किया और आपका दर्शन भी
कर लिया । अब इस आपकी दरणमें आये ई आपि हमारे
ऊपर नुप्र कौजिये।
आपस्तम्बजी बोछे-इस गौ उसछोग ग्रहण
करों | इससे तुम सव लोग पापमुक्त हो आओगे । निषाद
निन्दित कर्मसे युक्त दोनेपर मी प्राणियोंके मनमें प्रीति उत्पन्न
करके इन जठ्चारी मत्स्पोंके साथ स्वर्गलोकमें जायें। में
नरफक़ों देखेँ या स्वर्गम निवास करूँ, किंतु मेरे द्वारा मना
शाणी, द्वरीर और क्ियासे जो कुछ मी पुष्यकर्म बना हो,
उक्ते ये सभी वुःखात प्राणी शुम गतिक प्राप्त हों ।
कदनन्तर शुद्धचित्तवालें मदर्षि आपस्तम्वकी संत्यवाणी-
के प्रमाबसे वे सभी महाह मछलियोंके शय स्वर्गलोकम चले
गये । मछलियोंस्द्वेत उन मत्स्यजीत्ी निधादोको स्वरम गया
हुआ देख मरतो ओर सेवक्रोके साथ राजा नाभागको बदा
विस्मय हुआ | गे शस प्रकार बोले---“कल्याणकी इच्छा रखने-
चाके पुरुषोंकों सदा सतौ एवं प्रित्र जछग्रालि तीथोंका सेवन
करना चांदिये | इस जगत्में एक क्षणके लिये भी उनका
संग क्रिया जाय तो वह कभी निष्कड नहीं होता । अतः
साथु-महात्माओंफे पास बैठे और उन्हींके खाथ उत्तम कथा"
वातां करे ।
तदनन्तर आपस्तम्ब मुनि एवं महातरसी लोमझने
नाना प्रकारके उत्तम पद सुनाकर राजाको बोध प्राप्त कराया ।
सप राजाने परम दुर्लभ धर्ममयी बुद्धि धारन री । तत्पञचात्
मे दोनों मर्पि राजा नामागकी प्रशंसा करते हुए ब्ोलि---
पो ! राजेन्द्र ! तुम धन्य हो। क्योंकि तुम्हारी शुदि परमम
सत्पर हुईं है । मनुष्योके लिये धर्म परम दुलभ है, पिशेप्तः
राजाओंके लिये तो बह और भी दुर्लम है। सदि राजा
रस्थिमदमे उन्मत्त होकर स्वधर्मका परित्वाग न करे तो उससे
शुक्र दूसरा कौन हो सकता है? धर्म ही श्व
है--वह खदा अटल रहनेवाला है । राज्य तो मोहरूप
अथवा मोष आश्रय है। बह स्थिर रहनेग्रात्म नही । परु
राच्यकिययक मोद दोनेपर नरंकफी श्राति अत्यन्त भ्रुव रे ।
अतः विद्यान् पुरुष राभ्यकी निन्दा करते द । विषयल्टोदप
अविवेक) मनुष्य दी राज्यको मान्यता देते ह । मनीपी पुरुष
तो उसे सदा नरकके नुल्य देखते ह । अतः महाराज | यदि