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* श्रीपद्धागवत *

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उन्होंने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया ओर

उद्धवजीके साथ चौसर खेल रहे हैं वहां भी भगवान्‌ने खड़े

होकर उनका स्वागत किया, आसनपर बैठाया और विविध

सामग्रियों द्वारा बड़ी भक्तिसे उनकी अर्चा-पूजा की ॥ २० ॥

इसके बाद भगवानने नारदजीसे अनजानकी तरह

पूछा--'आप यहाँ कब पधारे! आप तो परिपूर्ण

आत्माराम--आप्तकाम हैं और हमलोग है अपूर्ण । ऐसी

अवस्थामें भला हम आपकी क्या सेवा कर सकते

हैं॥२१॥ फिर भी ब्रह्मस्वरूप नारदजी! आप

कुछ-न-कुछ आज्ञा अवश्य कीजिये और हमें सेवाका

अवसर देकर हमारा जन्म सफल कीजिये ।' नारदजी यह

सब देख-सुनकर चकित और विस्मित हो रहे थे। वे वहसे

उठकर चुपचाप दूसरे महलमें चले गये ॥ २२॥ उस

महतलमें भी देवर्षि नारदने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने

नन्‍्हे-नन्‍्हे बच्चोंको दुलार रहे हैं। वहाँसे फिर दूसरे महलमे

गये तो क्या देखते हैं कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्नानकी तैयारी

कर रहे हैं॥ २३॥ (इस प्रकार देवर्षि नारदने विभिन्न

महलोंमें भगवानको भिन्न-भिन्न कार्य करते देखा ।) कहीं वे

यज्ञ-कुण्डॉमें हवन कर रहे है तो कहीं पञ्चमहायज्ञोसे देवता

आदिकी आराधना कर रहे है । कहीं बराह्मणोको भोजन करा

रहे है, तो कही यज्ञका अवशेष स्वयै भोजन कर रहे

है ॥ २४ ॥ कहीं सन्ध्या कर रहे हैं, तो कहीं मौन होकर

गायत्रीका जप कर रहे है । कहीं हाथोंमें ढाल-तलवार लेकर

उनको चलानेके चैते बदल रहे हैं ॥ २५ ॥ कहीं घोड़े, हाथी

अथवा रथपर सवार होकर श्रीकृष्ण विचरण कर रहे हैं।

कहीं पलंगपर सो रहे हैं, तो कहीं बंदीजन उनकी स्तुति कर

रहे हैं ॥ २६॥ किसी महलमें उद्धव आदि मन्लियोंके साथ

किसी गम्भीर विषयपर परामर्श कर रहे हैं, तो कहीं

उत्तमोत्तम वाराड्रनाओऑंसे घिरकर जलक्रीडा कर रहे

हैं॥ २७॥ कहीं श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको वस्राभूषणसे सुसज्जित

गौओंका दान कर रहे हैं, तो कहीं ङ्गलमय इतिहास-

पुराणोंका श्रवण कर रहे हैं॥ २८ ॥ कहीं किसी पत्नीके

महलमें अपनी प्राणप्रियाके साथ हास्य-विनोदकी बातें

करके हँस रहे हैं। तो कहों धर्मका सेवन कर रहे है । कहीं

अर्थका सेवन कर रहे हैं--धन-संग्रह और धनवृद्धिके

कार्यमें लगे हुए हैं, तो कहीं धर्मनुकूल गृहस्थोचित

बैठकर प्रकृतिसे अतीत पुराण-पुरुषका ध्यान कर रहे हैं, तो

कहाँ गुरुजनोको इच्छित भोग-सामग्री समर्पित करके उनकी

सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं ॥ ३० ॥ देवर्षि नारदने देखा कि

भगवान्‌ श्रीकृष्ण किसीके साथ युद्धकी बात कर रहे हैं, तो

किसीके साथ सन्धिकी । कहीं भगवान्‌ बलरापजीके साथ

बैठकर सत्पुरुषोंक कल्याणके बिम विचार कर रहे

हैं॥ ३१॥ कहीं उचित समयपर पुत्र और कन्याओंका

उनके सदृश पत्नी और वरोके साथ बड़ी धूमधामसे

विधिवत्‌ विवाह कर रहे हैं ॥ ३२ ॥ कहीं घरसे कन्याओंको

विदा कर रहे हैं, तो कहीं बुलानेकी तैयारीमें लगे हुए हैं।

योगेश्वरेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णके इन विराट्‌ उत्सवोंको

देखकर सभी लोग विस्मित-चकित हो जाते थे॥ ३३ ॥

कहीं बड़े-बड़े यज्ञकि द्वारा अपनी कलारूप देवताओंका

यजन-पूजन और कहीं कूएँ, बगीचे तथा मठ आदि

बनवाकर इष्टापूर्त धर्मका आचरण कर रहे है ॥ ३४ ॥ कहीं

रेष्ठ यादवे घिरे हुए सिन्धुदेशीय घोड़ेपर चढ़कर मृगया

कर रहे हैं, और उसमें यज्ञके लिये मेध्य पशुओंका ही वध

कर रहे हैं॥ ३५॥ और कहीं प्रजामें तथा अन्तःपुरके

महलोंमें वेष बदलकर छिपे रूपसे सबका अभिप्राय

जाननेके लिये विचरण कर रहे हैं। क्यो न हो, भगवान्‌

योगेश्वर जो हैं॥ ३६ ॥

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार मनुष्यकी-सी लीला करते हुए

इृषीकेश भगवान्‌ श्रीकृष्णकी योगमायाका वैभव देखकर

देवर्षि नारदजीने मुसकराते हुए उनसे कहा-- ॥ ३७॥

“योगेश्वर ! आत्मदेव ! आपकी योगमाया ब्रह्माजी आदि

बड़े-बड़े मायावियोंके लिये भी अगम्य है। परन्तु हम

आपकी योगमायाका रहस्य जानते हैं; क्योकि आपके

चरणकमलॉकी सेवा करनेसे वह स्वयं हो हमारे सामने

प्रकट हो गयो है ॥ ३८॥ देवताओंके भी आराध्यदेव

भगवन्‌ ! चौदहों भुवन आपके सुयशसे परिपूर्ण हो रहे हैं।

अब मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आपकी त्रिभुवनपावनी

लीलाका गान करता हुआ उन लोकमि विचरण

करूँ ॥ ३९॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा--देवर्षि नारदजी ! मैं ही

धर्मका उपदेशक, पालन करनेवाला और उसका अनुष्ठान

करनेवालॉका अनुमोदनकर्ता भी हूँ। इसलिये संसारक

विषयोंका उपभोग कर रहे हैं॥२९॥ कहीं एकान्तमे धर्मकी शिक्षा देनेके उद्देश्यसे ही मैं इस प्रकार धर्मका

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