कादर ष्ड-उखराधं ]
# दुद्ेभ्वर वथा पार्दतीश्वर लिङ्गका माहात्म्य #
६८९.
छिज्लकी आराधना करनेवाले सब ष्मेग सदघुद्धिके पात्र हाँ
ओर सभी युक्तिकी दीक्षाके अधिकारी बनें । तात | अध्याजी-
के करदानसे क्य दियोदास यहाँके राजा दमि, तब तुम मेरे
आदेशसे मेरा मन्द्र निर्माण करोगे । विश्वकर्मन् | अ तुम
आओ ओर गुरुजीकी आशके पान्न यन करोः क्योकि
ओ गुरुके भक्त हैं; ये निःसन््देद्ठ मेरे ही मक्त हैं। भक्तोका
अभीष्ट पूर्ण $रनेयाल्त्र मैं ठुम्द्ोरे द्वारा स्थापित उस अर्वा-
विभ्रमे निरम्तर नियाप्त कहूँगरा । अक्ञोरेश्यरसे उत्तर भागने
जो वुम्दरि स्यापि श्वि हुए सव छिल्नड़ी आंगधना करगे,
उन्हें एा.पपर अमीए मनोरर्योद्धी परा होगी ।›
देण कहकर मशदेवजी अन्तर्घान हो गये और
विश्व्या अपने गुरुके श्र आये । गुस्की भभिखापा पूर्ण
दरके ये अपने घर चले गये | परपर भी अपने सत्कर्मसे
उन्होंने माता फिताड़ों उन्दुष्र किया और खदा उनी आशा-
का पालन दिया । तत्यआत् मे कायौ चछे आये और अपने
हारा स्थापित धिबलिङ्ग ङी आराधनामें शंन हो गये ।
श्रीमहदिषजी कहते हैं--पार्वती ! दमने काशीपुरी-
में मुक्ति देनेकी शक्ति रखनेवाक्े जिन सिषल्िल्ञोंक्रा परिचय
पूछा था, उन सवशर वर्णन मैंने श्वा । 5“कोरेश्वर, तरिविषटेश्वर,
महदेवेश्वर, कृतियातेश्वर, रलेश्वरः, च्रे, केदरिश्वर,
धर्मेश्वर, पीरेश्वर, कामेश्वर, विश्वफु॒मेश्वर तथा मतिकर्णोश्वर+
अपिमुक्केौधर और हम्पूर्ण विश्यक्ों सुख दैनेवाले विश्वनाथ
मामसे प्रसेद विस्वेश्वर--ये सभी मुक्तिदायक रिग हैं ।
अवैमुक्तश्षेत्रमें आऊर जिसने »माकन् विश्वेश्चरका पूजन कर
लिया, उसझा सैष्डो कर्यो भी जन्म नहीं होता ।
जितेन्द्रिय संन्यासतयोंकी आठ महीने घूमनेका विधान दे ओर
सपि चौमातेमें एक स्थानपर रहनेके छिये शाखी आड़ा
है | उन्हें किसी एक शयानपर छतगातार एक वर्पतढ नहीं रहना
चाहिये । परंतु अविमुक्त क्षेत्रमें जिनका प्रे हो गया है,
ऐसे संन्यासियोंके वि श्रमणं करनेका आदेश लगु नहीं
होता और उन्हें यहाँ मोक्ष भी निःतन््देहू प्राप्त हो जाता है ।
इसलिये कभी काशौपुरीका परित्याग नीं करना चादिये।
इन चौदह लिङ्गी माहास्म्य-कथा सुनऊर श्रेष्ठ पुरुष चौदहों
भुबनोमें उत्तम सम्मान प्राप्त करेगा ।
दक्षेधर तथा पार्वतीश्वर लिङ्गका माहात्म्य
श्कन्दजी कहते हैं--मुने ! मगवान् शहरके गणेने
जब दक्षपशफ्रा विध्यंस कर दिवा, उस समय अदश्याजीने
इश्च रो यह उपदेश दियां कि श्रजाप्ते | भगवान् शझूरफी
निन्दते जो दुस्त्यज पापपह्ष उत्पन्न हो गया है, उलो
घो डालनेफी इप्छा हो तो तुम का.पुरीमें जाओ बढ़े-
बड़े पापोङा नादा करनेयाछी पुण्यमयी कांशीपुरीम जाकर
चुम षहो शिवलिज्ञकी प्रतिधा करों | इससे भगवाम् शङ्कर
सन्द होते हैं और उनके ७४ होनेपर यह सम्पूर्ण चराचर
करात् सन्नुष्ट हो जाता द । मनीषी महर्षियोंने अझइत्या
आदि एपोषठा पायधित्त तो कृषा है, परंतु शिषनिन्दाजनिते
पाप प्राधित्त नहीं यताया है । उड़ा प्रायश्चित्त तो केबल
दाशी ही है | जिन पुष्यात्माओंने कामे शिवलिश्ञरी
ब्रतिश की है; उनके द्वारा सय धर्मोका अनुष्ठान हो गया |
इस संसारमें ये ही पुरुषार्थी हैं ।
अद्ाजीङ् यह वचन सुनडुर दक्ष प्रजापति शीघ्र ही
कांसीपुरीम आये पद्टों बड़ी भारी तपत्यामें सलपर
हो शो गे । उन्होने विधिपूर्वक शिघडिक्ुड्री स्थापना करके
उ
किती कस्दुको इस भसषटपर ये नदीं आनते ये । प्रजापति
दक्ष दिन-रात भगवान् मदेश्वरकी स्तुति, पूजा, नमस्कारः
ध्यान और दर्शन करते ये । एकविच दोष्टर उस ईश्वर-
लिङ्ग री आराधना करते हुए दक्षके शरह हजार यर्प भ्यतीव
हो गये । दक्षरन्या सती अपना शरीर त्यागकर जय हिमाचर-
की पत्रता पनी मेनाके गर्भे प्रकट हुईं ओर उमारूपसे
अत्यन्त तपस्या करके जब उन्होंने पिनाइृपाणि भगवान् शिवो
प्तिरूपमें प्राप्त कर लिया। तफ़्तक तपस्पामें निश्रतमायते
बैठे हुए दक्ष पिचलिङ्ग री आराधना करते रहे। तदनन्गर
गिरिराजकियोरी उमा ज्र अपने पतिके साथ कासी आपीं
और दक्षफों निश्वलचित्तसे शिवलिङ्ग आराधनामें तेतर
देखा, क्य देबीने महादेवजीसे निवेदन क्रिया--“प्रभो ! ये
हपस्यां ऋरते-फरते अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं । कृपा?
अब तो इम प्रजापति करदान देकर प्रसन्न कीजिये ।?
देवी अपणोके पेखा कहनेपर मदेभ्वरने वश्षसे
कहा--सद्गामांग | बर माँगो ।
भगवान् शाद्करद्म ऐसा वचन सुनकर प्रजापतिने
उन्हें अनेक कार प्रताम क्रिया और माना प्रकारे
सोन्रोद्ाण उनकी स्तुति डी । तत्पश्चात् उन्हें प्र्ष्
देखकर इस प्रकार कष्टा--ष्देव ! भापके युगल नरणारचिन्दो