है।] जिसके प्रत्येक चरणमें सगण, जगण तथा दो
सगण हों, उसकी ' प्रमिताक्षरा" संज्ञा होती है।
[इसमें भी पादान्तविराम ही अभीष्ट है।] भगण,
मगण, सगण, मगणसे युक्त चरणोवाले छन्दको
*कान्तोत्पीडा' कहते है । [इसमें भी पादान्त-
विराम माना गया है।] दो मगण और दो
यगणयुक्त चरणवाले छन्दको ' वैश्वदेवी" नाम
दिया गया है। इसमें पाँच-सात अक्षरोंपर विराम
होता है। यदि प्रत्येक पादमें नगण, जगण, भगण
और यगण हों तो उस छन्दका नाम 'नवमालिनी ”
होता है। यहाँतक “जगती' छन्दका अधिकार
है॥ ९-१३॥
(अब "अतिजगती" छन्दके अवान्तर भेद
बतलाते हैं-] जिसके प्रत्येक चरणमें मगण,
नगण, जगण, रगण तथा एक गुरु हों, उसकी
"प्रहर्षिणी" संज्ञा है। इसमें तीन और दस
अक्षरोंपर विराम होता है। जगण, भगण, सगण,
१.
जगण तथा एक गुरसे युक्त चरणवाले छन्दका
नाम “रुचिरा ^ है। इसमें चार तथा नौ अक्षरोपर
विराम माना गया है। मगण, तगण, यगण, सगण
और एक गुरुयुक्त पादवाले छन्दको " मत्तमयूर^
कहते हैँ । इसमें चार और नौ अक्षरोपर विराम
होता है। तीन नगण, एक सगण और एक गुरुसे
युक्तं पादवाले छन्दकी "गौरी संज्ञा है।
[अब शक्ररीके अन्तर्गत विविध छन्दोंका
वर्णन किया जाता है--] जिसके प्रत्येक पादमें
मगण, तगण, नगण, सगण तथा दो गुरु हों और
पाँच एवं नौ अक्षरोंपर विराम होता हो, उसका
नाम “असम्बाधा” दै। जिसके प्रतिपादमें दो
नगण, रगण, सगण ओर एक लघु ओर एक गुरु
हों तथा सात-सात अक्षरोँपर विराम होता हो,
वह " अपराजिता“ नामक छन्द है। दो नगण,
भगण, नगण, एक लघु और एक गुरुसे युक्त
पादवाले छन्दको "प्रहरणकलिता" कहते है ।
श्रवणयोरमृतम्।
परिशुद्धवाक्यरचनातिशय॑ परिषिश्चती
परमिक्तश्षरापि चिपुलार्थकती केव भारती हरति मे हदयम् #
२, कान्तकरैराप्ता यदि कान्तोत्पौडां सा मनुते क्रोडां मुदित स्वान्ता स्यात्।
खेहव्ती मान्या गृहिणो सप्राज्ञी गेहगता देवो सदृशौ सा नित्यम् 8
३, धन्वः पुण्यात्मा जायते कोऽपि वंशे तादूक पुत्रोऽसौ येने गोत्रं पवित्रम।
गोविप्रज्ञाठिस्वामिकार्ये प्रवृत्तः शुद्ध श्राद्धादौ वैश्वदेवौ भयैद् यः ॥
दृढ्गुणबद्धकौर्तिकुसुमौध
५. औवृन्दावननवकुअकेलिसद्या. पद्माक्षी मुररिपुसड्रशालिती च।
प्रिबतमसुष्टिमेयमध्या मद्ध्याने भवतु मन:प्रहर्षिणी ये॥
६. मृगत्वचा रुचिरतराम्बक्रियः कपालभृत् = कपिलजराग्रपल्लवः।
ललारटदृग्दहनतृणीकृतस्मर: घुत्रातु वः शिशुशशिशेखर: शियः ॥
७. व्यूढोरस्कः सिंहसमाताततनध्यः पीनस्कन्धो मांसलहस्तायतबाहु:।
कम्बुग्रीवः स्तिग्धशरौरस्तनुलोमा भुङ्क्ते राज्यं मत्तमयूगाकृतिनेत्र: ॥
८, सकलभुवनजनगणनतपादा निजपदभजनरानितविषादा ।
विचितसरसिर्हनयनषद्मा भवतु सकलमिह जगति गौरी ष
९, भङ्क्ता दुर्गाणि द्रमवनमखिल छित्वा हता तत्सैन्यं करितुरगबलं हित्वा ।
येनासम्बाधा स्थितिरजन्रि चिपश्चाणां सरवोर्वीनाथः स जयति नृपतिरपुञजः #
१०. फणिपतिवलय॑ जटामुकुटोज्वल॑ मनसिजमथनं त्रिशूलविभूषितम्।
स्मरसि यदि सखे शिवं शशिरेखःरं भवति तव तनुः पौरपराजिता॥