७३२ * संक्षिप्त ब्रह्म॑लैवर्तपुराण *
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माता सुभद्रा कन्याको अपनी छातीसे लगाकर | विश्वकर्मद्वारा निर्मित सोनेके सुन्दर-सुन्दर जलपात्र
उसको सखियों तथा बान्धवोंके साथ उच्च स्वरसे | तथा भोजनपात्र, बहुत-सी गाये, एकं हजार
रोने लगीं और इस प्रकार बोलीं। दूधवाली सवत्सा धेनुँ और बहुत-से बहुमूल्य
सुभद्राने कहा--वत्से! तू मुझ अपनी | रमणीय अग्निशुद्ध वस्त्र प्रदान किये। तब वसुदेव
माताका परित्याग करके कहाँ जा रही है ? भला, | और उग्रसेन देवताओं और मुनियोंके साथ
मैं तुझे छोड़कर कैसे जी सकूँगी? और तू भी | प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र ही द्वारकाकी ओर चले। वहाँ
मेरे बिना कैसे जीवन धारण करेगी? रानी बेटी !| अपनी रमणोय पुरीमें प्रवेश करके उन्होंने
तू महालक्ष्मी है, तूने मायासे ही कन्याका रूप | मङ्गल -कृत्य कराये, सुन्दर एवं अत्यन्त मनोहर
धारण कर रखा है। अब तू वसुदेव-नन्दनकौ | बाजे बजवाये। तदनन्तर देवकी, सुन्दरौ रोहिणी,
प्रिया होकर मेरे घरसे वसुदेवजीके भवनको जा | नन्दपत्नी यशोदा, अदिति, दिति तथा अन्यान्य
रही है। यों कहकर रानीने शोकवश नेत्रोंक जलसे | सौभाग्यवती नारियाँ श्रीकृष्ण और सुन्दरी रुक्मिणीकी
अपनी कन्याको भिगो दिया। भीष्मकने भी | ओर बारंबार निहारकर उन्हें घरके भीतर लिवा
आँखोंमें आँसू भरकर अपनी कन्या श्रीकृष्णको | ले गयीं और उन्होंने उनसे मङ्गल-कृत्य करवाये।
समर्पित कर दी। इस प्रकार उसका परिहार करके | फिर देवताओं, मुनिवरो, नशो और भाई-
बे फूट-फूटकर रोने लगे। तब रुक्मिणीदेवी तथा | बन्धुओंको चतुर्विध (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य)
श्रीकृष्ण भी लीलासे आँसू टपकाने लगे। तत्पश्चात् | भोजन कराकर उन्हें विदा किया। पुनः हर्षमग्न
बसुदेवजीने पुत्र और पुत्रवधूको रथपर चढ़ाया। | हो भट्ट ब्राह्मणोंको इतने रत्न आदि दान किये,
इस अवसरपर राजा भीष्मक अपने जामाताको | जिससे वे प्रसन्न और संतुष्ट हो गये। उन्हें भोजन
दहेज देने लगे। उन्होने हर्षपूर्ण हृदयसे एक हजार | भो कराया। इस प्रकार भोजन करके और धन
गजराज, छः हजार घोड़े, एक सहस्र दासियाँ, लेकर वे सभी खुशी- खुशी अपने घरोंकों गये।
सैकड़ों नौकर, अमूल्य रत्नोंके बने हुए आभूषण, |यों वसुदेव-पत्नीने सारा मङ्गल- कार्य सम्पन्न
एक हजार रल, पाँच लाख शुद्ध सुवर्णकी मोहरें, कराया। (अध्याय १०८-१०९)
न
श्रीकृष्णके कहनेसे नन्द-यशोदाका ज्ञान प्रा्िके लिये कदलीवनमें राधिकाके पास
जाना, वहाँ अचेतनावस्थामें पड़ी हुई राधाको श्रीकृष्णके संदेशद्वारा चैतन्य
करना और राधाका उपदेश देनेके लिये उद्यत होना
श्रीनारायण कहते हैँ -- नारद! इस प्रकार | पृथ्वीका उद्धार करनेवाले और भक्तोंको उबारनेवाले
उस साङ्गोपाङ्ग मङ्गल-कार्यके अवसरपर पधारे | हो। मैं भयभीत हो इस भयंकर भवसागरमे पडी
हुए लोगोंके चले जानेपर नन्दजी वशोदाके साथ हुई हूँ। मायामयी प्रकृति हौ इस भवसागरसे
अपने प्रिय पुत्र (श्रीकृष्ण) -के निकट गये। | तरनेके लिये नौका है ओर तुम्हीं उसके कर्णधार
वहां जाकर यशोदाने कहा-- माधव! हो; अतः कृपामय ! मेस उद्धार करो। यशोदाकी
तुमने अपने पिता नन्दजीको तो ज्ञान प्रदान कर| बात सुनकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण जो ज्ञानियोंके
ही दिया, परंतु बेटा! मैं तुम्हारी माता हूँ; अतः गुरुके भी गुरु है, हँस पड़े और भक्तिपूर्वक
कृपानिधे! मुझपर भी कृपा करो । महाभाग! तुम मातासे बोले।